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________________ १७८ पंचसंग्रह : ८ प्रकृति नाम उ० अनु० उदो० स्वा० । ज० अनु० उदो० स्वा० देवानुपूर्वी उ. स्थितिवाला विग्रह- | मध्यमपरिणामी विग्रहगति तृतीय समयवर्ती | गतिवर्ती देव अनुत्तर-देव तिर्यंचानुपूर्वी अति सं. अष्टवर्षायूष्क | मध्यमपरिणामी विग्रहविग्रहगति तृतीय समय- गतिवर्ती तिर्यंच वर्ती संज्ञी तिर्यंच मनुष्यानुपूर्वी अति विशुद्ध त्रिपल्य- मध्यमपरिणामी विग्रहआयुष्क विग्रहगति तृतीय | गतिवर्ती मनुष्य समयवर्ती मनुष्य अशुभ विहायोगति अति सं. उत्कृष्ट स्थि- | मध्यम परिणामी तिक पर्याप्त सप्तम पृथ्वीनारक शुभ विहायोगति " सर्व विशुद्ध पर्याप्त आहारकशरीरी अप्रमत्त यति उपघात उ. स्थितिक पर्याप्त | विशुद्ध दीर्घायु शरीरस्थ सप्तम पृथ्वी नारक सूक्ष्म पराघात सर्वविशुद्ध पर्याप्त आहा- | दीर्घायु अति सं. पर्याप्त रक शरीरी अप्रमत्त यति | चरमसमयवर्ती सूक्ष्म आतप सर्व विशुद्ध बादर पर्याप्त | अति सं. स्वोदय प्रथम खर पृथ्वीकाय समयवर्ती खर बादर पृथ्वीकाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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