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________________ १६६ पंचसंग्रह : ८ परिशिष्ट : ११ अनुभागोदोरणापेक्षा मूलप्रकृतियों का घातित्व स्वामित्व दर्शक प्रारूप प्रकृति नाम घा. स्था. घा. स्था. आश्रयो | आधयो | विपाकी | उ. स्वा. उत्कृष्ट | जघन्य। ज. स्वा. ज्ञानावरण | सर्वघाति । सर्वघाति जीव वि. अति. संक्लि. समयाधिक आव. दर्शनावरण | चतु स्था. | द्वि. स्था. मिथ्यात्वी शेष क्षीणमोही पर्याप्त संज्ञी वेदनीय , सर्वघाति सर्वघाति प्रति भाग | प्रति भाग चतुःस्था. द्वि. स्था. उत्कृष्टस्थिति परावर्तन वाला पर्याप्त मध्यम परिणामी अनुत्तर मिथ्यादृष्टि वासी मोहनीय । सर्वघाति । देशघाति चतु:स्था. एक स्था. अति सं. समयाधिक आवः मिथ्यात्वी | शेष क्षपक सूक्ष्म पर्याप्त संज्ञी | संपरायी आयु सर्वघाति | सर्बघाति भव | उ. स्थि. | समयाधिक प्रतिभाग प्रति भाग विपाकी वाला भवाद्य आव.शेष आयु चतुःस्था. | | द्वि. स्था. समयवर्ती वाला नाम, गोत्र " क्रमशः भव चरम समय | परा. मध्यम बिना तीन वर्ती सयोगी | परिणामी जीव मिथ्यादाष्टि विपाकी अंतराय । देशघाति देशघाति | जीव सर्वाल्प लब्धि- समयाधिक द्वि. स्थान | एक स्था. विपाकी | बंत भवाद्य | आवलिका शेष समयवर्ती अप. क्षीणमोही सूक्ष्म एके. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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