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________________ ११८ पंचसंग्रह : ८ निद्रा और प्रचला की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा उपशांनमोहगुणस्थान में वर्तमान जीव के, स्त्यानद्धित्रिक की अप्रमत्तभाव के सम्मुख हुए प्रमत्त मुनि के, मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधीकषाय की संयम सहित सम्यक्त्व को प्राप्त करने के उन्मुख मिथ्यात्वगुणस्थान के चरम समय में वर्तमान मिथ्या दृष्टि के मिश्रमोहनीय की जिस समय क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त हो, उससे पहले के समय में अर्थात् तीसरे गुणस्थान से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त कर चौथे गुणस्थान में जाते तीसरे गुणस्थान के चरम समय में, अप्रत्याख्यानावरणकषाय की अनन्तर समय में सर्वविरति चारित्र प्राप्त करने के उन्मुख अविरतसम्यग्दृष्टि के, प्रत्याख्यानावरणकषाय की अनन्तर समय में सर्वविरति चारित्र प्राप्त करने के उन्मुख देशविरति के, संज्वलन क्रोध, मान और माया की उस-उस कषाय के उदय वाले के अपने-अपने उदय के पर्यवसान समय में, तीन वेद और संज्वलन लोभ की उस-उस प्रकृति के उदय वाले क्षपक के उक्त प्रकृति की समयाधिक आवलिकाप्रमाण स्थिति शेष रहे तब और हास्यषट्क की अपूर्वकरण गुण स्थान के चरम समय में (पृष्ठ ११७ का शेष) श्र तज्ञानावरणादि की जघन्य अनुभागोदीरणा होती है । परन्तु ऐसा तो कहा नहीं, अतः यह ज्ञात होता है कि उत्कृष्ट श्र तपूर्वी आदि के जघन्य रस की, अन्य के मध्यम रस की उदीरणा होती है तथा यह भी नहीं समझना चाहिये कि जघन्य अनुमागोदीरणा करने वाले प्रत्येक के उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा ही होती है । क्योंकि गुणितकर्माश हो तो करता है, अन्य मध्यम प्रदेशोदीरणा करते हैं । मात्र जिस स्थान पर घातिकर्म की जघन्य अनुभागोदीरणा कही है, वहीं उसकी उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा होती है। जैसे कि मति ज्ञानावरणादि की बारहवें गुणस्थान की समयाधिक आव. लिका शेष रहे तब जघन्य रसोदीरणा कही है वैसे ही बारहवें गुणस्थान की समयाधिक आवलिका शेष रहे तब उन प्रकृतियों की गुणितकर्माश के उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा भी कहना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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