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________________ उदी रणाकरण-अरूपणा अधिकार : गाथा ८१ ११३ मूलप्रकृतिसम्बन्धी साद्यादि प्ररूपणा पंचण्हमणुक्कोसा तिहा चउद्धा य वेयमोहाण । सेसवियप्पा दुविहा सव्वविगप्पाउ आउस्स ।।८१॥ शब्दार्थ-पंचगहमणुक्कोसा–पाँच कर्मों की अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा, तिहा–तीन प्रकार की, चउद्धा-चार प्रकार की, य-और, देय नोहाणं - वेदनीय, मोहनीय की, सेसवियप्पा-शेष विकल्प, दुविहा-दो प्रकार के, सव्वविगप्पाउ-सभी विकल्प, आउस्स-आयु के । गाथार्थ-पांच कर्मों की अनुत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा तीन प्रकार की और वेदनीय, मोहनीय की चार प्रकार की है । उक्त कर्मों के शेष विकल्प तथा आयु के सर्व विकल्प दो प्रकार के हैं। विशेषार्थ-'पंचण्ह' अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय, नाम और गोत्र कर्म रूप पांच मूल कर्मप्रकृतियों की अनुत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह तीन प्रकार की है । वह इस प्रकार- उक्त कर्मों की उत्कृष्ट प्रदेशोदी रणा गुणितकर्माश जीव के अपनी-अपनी उदीरणा के अन्त में होती है। उसके नियत काल पर्यन्त ही होने से सादि-सांत है। उसके अतिरिक्त शेष सब उदीरणा अनुत्कृष्ट है और उसके अनादि काल से प्रवर्तमान होने से अनादि है। अभव्य की अपेक्षा ध्रुव और भव्य की अपेक्षा अध्रुव जानना चाहिये । ___ उक्त पाँच कर्मों में से तीन घाति कर्मों की अन्तिम उदीरणा बारहवें और अघाति कर्मद्विक की तेरहवें गुणस्थान में होने से और उन दोनों गुणस्थानों से पतन का अभाव होने से सादि भंग संभव नहीं है। तथा__वेदनीय और मोहनीय कर्म की अनुत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा 'चउद्धा'सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार की है । जो इस प्रकार-वेदनीय की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा अप्रमत्तभाव के सन्मुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org|
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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