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________________ पंचसंग्रह : ८ हैं वे ही जीव उस-उस आनुपूर्वी नामकर्म के उत्कृष्ट अनुभाग के उदीरक हैं। मात्र अपने-अपने भव के तीसरे समय में वर्तमान जीवों का ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि आनुपूर्वीनाम का उदय विग्रहगति में ही होता है तथा उदीरणा उदय सहभावी है और अधिक से अधिक विग्रह गति तीन समय की होती है। इसलिए यहां तीसरा समय लिया है। मनुष्य और देवानुपूर्वी के उत्कृष्ट अनुभाग के उदीरक विशुद्ध परि. णामी और नरक-तिर्यंचानुपूर्वी के संक्लिष्ट परिणामी जानना चाहिये । तथा जोगन्ते सेसाणं सुभाणमियराण चउसुवि गई । पज्जत्तुक्कडमिच्छेसु लद्धिहीणेसु ओहीणं ॥६॥ शब्दार्थ-जोगन्ते-सयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में, सेसाणंशेष प्रकृतियों की, सुभाणं-शुम प्रकृतियों की, इयराण-इतर (अशुभ) प्रकृतियों की, चउसुवि-चारों ही, गइसु-गति के, पज्जत्त ककडमिच्छेसु-पर्याप्त उत्कृष्ट मिथ्यात्वी के, लविहीणेसु-अवधिलब्धि रहित के, ओहोणं-- अवधिद्विक की। गाथार्थ-शेष शुभप्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा सयोगि के चरम समय में होती है । पर्याप्त उत्कृष्ट मिथ्यात्वी चारों गति के जीवों के शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा होती है । अवधिद्विक की अवधिलब्धिहीन को होती है । विशेषार्थ-जिन प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा पूर्व में कही जा चुकी है, उनके सिवाय शेष तैजससप्तक, मृदु-लघु स्पर्श के अतिरिक्त शेष शुभ वर्णादिनव, अगुरुलघु, स्थिर, शुभ, सुभग, आदेय, यशःकीति, निर्माण, उच्चगोत्र और तीर्थकरनाम रूप पच्चीस शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा सयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में वर्तमान जीवों के होती है। ये सभी पुण्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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