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________________ ६८ पंचसंग्रह : ८ तिरिमणुजोगाणं मीस गुरुयखरनर य देवपुव्वीणं । रसो उदए उदीरणाए य ॥ ४५ ॥ दुट्ठाणिओच्चिय शब्दार्थ - थावरचउ - -स्थावरचतुष्क, आयव - आतप, उरलसत्त औदारिसप्तक, तिरिविगलमग यतियगाणं तिर्यवत्रिक, विकलत्रिक, मनुष्यत्रिक, नग्गोहाइचउन्हं - - न्यग्रोध आदि चतुष्क संस्थान, एगिदि एकेन्द्रिय जाति, उसभाइछण्हंपि वज्रऋषभनाराचादि संहननषट्क | तिरमणुजोगाणं तिर्यंच और मनुष्य उदयप्रायोग्य, मीस - मिश्रमोहनीय, गुरुयखर- गुरु और कर्कश स्पर्श, नर य देवपुव्वीणं - नरक और देव आनुपूर्वी की, दुट्ठाणिओच्चिय - द्विस्थानक ही रसो -रस ( अनुभाग ), उदएउद्दरणाए य - उदय और उदीरणा में । , गाथार्थ - स्थावरचतुष्क, आतप, औदारिकसप्तक, तिर्यंचत्रिक, विकलत्रिक, मनुष्यत्रिक, न्यग्रोधसंस्थान आदि चतुष्क, एकेन्द्रियजाति, वज्रऋषभनाराच आदि संहननषट्क रूप तिर्यंच और मनुष्य उदयप्रायोग्य तथा मिश्रमोहनीय, गुरु, कर्कश स्पर्श, देवनरकानुपूर्वीनाम प्रकृतियों का उदय और उदोरणा में द्विस्थानक रस ही होता है । - विशेषार्थ-स्थावरचतुष्क—स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, आतप, औदारिकसप्तक, तिर्यंचत्रिक - तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, तिर्यंचायु, विकलत्रिक - द्वीन्द्रिय, त्रोन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति, मनुष्यत्रिक - मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, न्यग्रोधादिचतुष्कन्यग्रोधमरिमण्डल, सादि, वामन, और कुब्ज संस्थान, एकेन्द्रिय जाति तथा वज्रऋषभनाराच आदि छह संहनन रूप तिर्यंच ओर मनुष्य के उदयप्रायोग्य बत्तीस प्रकृति तथा मिश्रमोहनीय, गुरु, कर्कश स्पर्शनाम, देव और नरक आनुपूर्वीनाम ये पाँच कुल मिलाकर सैंतीस प्रकृतियों का उदय और उदीरणा में द्विस्थानक रस ही होता है । क्योंकि ये प्रकृतियां चाहे जैसे रस वाली बंधे, लेकिन जीवस्वभाव से सत्ता में रस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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