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संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २०
तथा तेरह प्रकृतियों का आठ कषायों का क्षय करने के बाद अन्तरकरण न करे, वहाँ तक क्षपकश्रेणि में तथा पुरुषवेद का उपशम होने के बाद उपशम सम्यग्दृष्टि के उपशमश्र णि में पांच प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रमण होता है । तथा
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अठारह उन्नीस और बीस प्रकृतिरूप तीन संक्रमस्थान क्षायिक सम्यग्दृष्टि के उपशमश्रण में होते हैं । उनमें से अन्तरकरण करने पर लोभ का संक्रमण नहीं होता है, इसलिये बीस, नपुंसकवेद का उपशम होने के बाद उन्नीस और स्त्रीवेद का उपशम हुआ कि अठारह प्रकृतियां पांच में संक्रमित होती हैं तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि के उपशमश्र ेणि में अन्तरकरण करने के पूर्व और आठ कषाय के क्षय के पहले क्षपकश्रेणि में इक्कीस प्रकृतियां पांच प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं ।
चार के पतद्ग्रह में सात, आठ, चार, दस, ग्यारह, बारह और अठारह ये संक्रमस्थान संक्रमित होते हैं । उनमें हास्यषट्क का क्षय होने पर चार प्रकृतियां चार में क्षपकश्रेणि में ही संक्रमित होती हैं तथा स्त्रीवेद का क्षय होने के बाद उपशमश्र ेणि में दस प्रकृतियां चार में संक्रमित होती हैं तथा उसी उपशम सम्यक्त्वी के उपशमश्र ेणि में अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण मान का उपशम हुआ कि आठ और संज्वलन मान उपशमित हुआ कि सात प्रकृतियां चार में संक्रमित होती हैं तथा ग्यारह बारह और अठारह प्रकृतिक ये तीन संक्रमस्थान क्षायिक सम्यग्दृष्टि के उपशमश्रेणि में होते हैं । उनमें स्त्रीवेद का उपशम होने के बाद अठारह, हास्यषट्क का उपशम होने के बाद बारह और पुरुषवेद का उपशम होने के बाद ग्यारह प्रकृतियां चार प्रकृतिक पतद्ग्रह में संक्रमित होती हैं । तथा
तिन्नि तिगाई सत्तट्ठनवय संकममिगारस निगम्य ।
दोसु छडट्ठदुपंच य इगि एक्कं दोणि तिणि पण ॥ २० ॥
शब्दार्थ — तिन्नि–तीन, तिगाई—तीन आदि, सत्तट्ठनवय—सात, आठ, नौ, संकमम - संक्रमित होते हैं, इगारस - ग्यारह, तिगम्मि- तीन प्रकृतिक
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