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________________ ५० पंचसंग्रह : ७ अब मंक्रम और पतद्ग्रह स्थानों की अपेक्षा मोहनीयकर्म के सम्बन्ध में विचार करते हैं। उसमें भी पहले संक्रमस्थानों को जानने की विधि बतलाते हैं। मोहनीयकर्म के संक्रमस्थान जानने की विधि लोभस्स असंकमणा उव्वलणा खवणओ छसत्तहं । उवसंताण वि दिट्ठिीण संकमा संकमा नेया ॥१६॥ शब्दार्थ-लोभस्स-लोभ के, असंकमणा-संक्रम का अभाव, उच्चलणा-उदलना, खवणओ-क्षपणा, छसत्तह-छह और सात की, उवसंताण-उपशांत, वि-भी दिट्ठीण-दृष्टियों का संकमा-संक्रमण से, संकमा----संक्रमस्थान, नेया-जानना चाहिये । गाथार्थ-लोभ के संक्रम का अभाव, छह प्रकृतियों की उद्वलना, सात प्रकृतियों की क्षपणा तथा उपशांत होने पर भी दृष्टियो के संक्रमण से संक्रमस्थान जानना चाहिये। विशेषार्थ-गाथा में मोहनीयकर्म के संक्रमस्थान प्राप्त करने का विधि-सूत्र बतलाया है । अतः गाथा में जो संकेत किये हैं, उनको लक्ष्य में रखकर कहाँ-कहाँ कौन-कौन संक्रमस्थान संभव हैं, वे जान लेना चाहिये । जैसे नौवें गणस्थान में अन्तरकरण करने के पश्चात् संज्वलन लोभ का संक्रम नहीं होता है, अतएव उसके बाद प्रारम्भ में बाईस, बीस या बारह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। इसी प्रकार अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये तथा सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और अनन्तानुबन्धिचतुष्क इन छह प्रकृतियों की उद्वलना और हास्यषट्क तथा पुरुषवेद इन सात प्रकृतियों का क्षय होने के बाद उनका संक्रम नहीं होता है तथा तीन दृष्टियों का उपशम होने पर भी संक्रम होता है ।। १. सम्यक्त्वमोहनीय का अन्य प्रकृतिनयनसंक्रम नहीं होता है परन्तु अपवर्तनासंक्रम होता है। मिश्र, मिथ्यात्व मोहनीय का ही अन्यप्रकृतिनयनसंक्रम होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only Forre www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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