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संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५.
शब्दार्थ- नवछक्कच उक्केसु - नौ, छह और चार प्रकृतिक में, नवगंनौ प्रकृतियां, संकमइ — संक्रमित होती हैं, उवसमगयाणं- उपशमश्रेणि वालों के, खवगाण -- क्षपकश्रेणि गत के, चउसु-चार में, छक्कं छह प्रकृतियां, दुइए - दूसरे कर्म ( दर्शनावरण) में, मोहं— मोहनीय के, अओ - इसके बाद वोच्छं— कहूंगा ।
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गाथार्थ - दर्शनावरणकर्म के नौ, छह और चार इन तीन पतद्ग्रह में उपशमश्रेणि वालों के नौ संक्रमित होती हैं और क्षपकश्रेणिगत जीवों के चार में छह प्रकृतियां संक्रमित होती हैं । अब इसके बाद मोहनीय के लिये कहूँगा ।
विशेषार्थ – दूसरे दर्शनावरणकर्म में नौ, छह और चार प्रकृतिक इन तीन पतद्ग्रह में नौ प्रकृतियां संक्रमित होती हैं। उनमें से आदि के दो गुणस्थानों पर्यन्त नौ में नौ संक्रमित होती हैं। तीसरे गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान के प्रथम भाग पर्यन्त स्त्यानद्धित्रिक का बंध नहीं होने से शेष छह प्रकृतिक पतद्ग्रह में नौ प्रकृतियां संक्रमित होती हैं ।
आठवें गुणस्थान के दूसरे भाग से दसवें गुणस्थान के चरम समयपर्यन्त उपशमश्र णि को प्राप्त जीवों के बंधने वाली दर्शनावरण की चार प्रकृतियों में नौ प्रकृतियां संक्रमित होती हैं। चार में नौ का संक्रम उपशमश्रण में ही होता है । क्षपकश्र णिगत जीव ही नौवें गुणस्थान में स्त्यानद्धित्रिक का क्षय होने के बाद सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरमसमय पर्यन्त बंधने वाली चार प्रकृतियों में छह प्रकृतियां संक्रमित करता है । अन्य कोई संक्रमित नहीं करता है । अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान के प्रथम समय से बारहवें गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त यद्यपि दर्शनावरणकर्म की सत्ता होती है, लेकिन दर्शनावरणकर्म का संक्रम नहीं होता है। क्योंकि बंध नहीं है और बंध नहीं होने से तदुग्रह भी नहीं और इसी कारण से चार प्रकृति रूप संक्रमस्थान या पतद्ग्रह होता है
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