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________________ ४५ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३ वेदनीयकर्म के साद्यादि भंग तीसरे वेदनीयकर्म की दो प्रकृतियों में से अबध्यमान एक प्रकृति रूप संक्रमस्थान और बध्यमान एक प्रकृति रूप पतद्ग्रहस्थान सामान्यतः सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त होता है। उससे आगे उपशांतमोह आदि गुणस्थानों में सांपरायिक बंध का अभाव होने से संक्रम अथवा पतद्ग्रह दोनों में से कोई भी स्थान नहीं होता है । कषायरूप बंधहेतु द्वारा जहाँ तक प्रकृतियां बंधती हैं, वहाँ तक ही बंधने वाली प्रकृति पतद्ग्रह होती है । जहाँ कषाय बंधहेतु नहीं है, वहाँ कदाचित् प्रकृति बंधती भी हो, लेकिन वह पतद्ग्रह नहीं होती है। ___ ग्यारहव आदि गुणस्थानों में सातावेदनीय के सिवाय अन्य किसी भी प्रकृति का बंध नहीं होता है और बंध न होने से पतद्ग्रह नहीं है एवं पतद्ग्रह का अभाव होने से कोई भी प्रकृति संक्रमित नहीं होती है। ____ यद्यपि सातावेदनीय का बंध होता है, किन्तु वह पतद्ग्रह नहीं है। क्योंकि उसके बंध में कषाय हेतु नहीं है। उपशांतमोहगुणस्थान से जब पतन होता है तब उसके दोनों स्थानों की शुरुआत होती है । दसवें से सातवें गुणस्थान तक सातावेदनीय पतद्ग्रह, असाता का संक्रम और छठे से नीचे के गुणस्थानों में परिणाम के अनुसार दोनों में से जिसका बंध हो, वह पतद्ग्रह और शेष का संक्रम होता है । इसलिये वे दोनों स्थान सादि हैं। ग्यारहवां गुणस्थान जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनकी अपेक्षा अनादि, अभव्य के ध्र व-अनन्त और भव्य के अध्र व-सांत है। सामान्य की अपेक्षा वेदनीयकर्म के लिये विचार करें तब उक्त प्रकार से चार भंग घटित होते हैं, परन्तु जब उसकी एक-एक प्रकृति की अपेक्षा विचार किया जाये तब एक-एक प्रकृति रूप संक्रम और पतद्ग्रह दोनों सादि और अध्र व-सांत हैं । क्यों बारंबार परावर्तन होना संभव है। गोत्रकर्म के साद्यादि भंग वेदनीयकर्म की तरह गोत्रकर्म की भी स्थिति है। क्योंकि इसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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