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________________ ४२ पंचसंग्रह : ७ प्रत्याख्यानावरण ये दोनों लोभ संज्वलन लोभ में अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त संक्रमित होते हैं । अर्थात् जब तक संज्वलन लोभ पतद्ग्रह रूप हो तब तक उपर्युक्त दोनों लोभ संक्रमित होते हैं। नौवें गुणस्थान का समय न्यून दो आवलिका काल शेष रहे, यानि संज्वलन लोभ पतद्ग्रह रूप नहीं रहता तब से दोनों लोभ का संक्रम नहीं होता है किन्तु उपशम ही होता है और नौवें गुणस्थान के चरम समय में ये दोनों लोभ सर्वथा शांत हो जाते हैं । तत्पश्चात् अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के चरम समय में उक्त दोनों लोभों के उपशांत हो जाने से दसवें गुणस्थान में किसी भी प्रकृति का किसी भी प्रकृति में संक्रम नहीं होता है । इस प्रकार उपशमश्र णि में वर्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा संक्रम- पतद्ग्रहविधि जानना चाहिये । अब क्षपकश्रेणि में वर्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा संक्रम और पतद्ग्रह विधि का विचार करते हैं । क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षपकश्र ेणि में वर्तमान की संक्रम-पतद्ग्रहविधि इक्कीस प्रकृतियों की सत्ता वाला क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षपकश्र ेणि स्वीकार करता है । अनिवृत्तिबादरसंप रायगुणस्थान को प्राप्त हुए उसके पुरुषवेद और संज्वलनचतुष्क रूप पांच प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में इक्कीस प्रकृतियां संक्रमित होती हैं । तत्पश्चात् आठ कषाय का क्षय होने पर तेरह प्रकृतियां अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त पांच प्रकृतिक पतग्रहस्थान में संक्रान्त होती हैं । उसके बाद अन्तरकरण होने पर संज्वलन लोभ का संक्रम नहीं होता है, इसलिये शेष बारह प्रकृतियां उसी पांच प्रकृतिक पतद्ग्रह में अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त संक्रमित होती हैं । उसके बाद नपुंसकवेद का क्षय होने पर ग्यारह प्रकृतियां और स्त्रीवेद का क्षय होने पर दस प्रकृतियां अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त उसी पांच प्रकृतिक पतद्ग्रह में संक्रमित होती हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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