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संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११,१२
उपशमश्रेणि में वर्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि के पूर्वोक्त पांच में से अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण माया का उपशम हो तब शेष तीन प्रकृतियां संक्रमित होती हैं । उसी के संज्वलन माया उपशमित हो तब संज्वलन लोभ पतद्ग्रह हो वहाँ तक शेष दो लोभ (अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण लोभ) संक्रम में होते हैं । अथवा उपशमश्र ेणि में वर्तमान उपशम सम्यग्दृष्टि के पूर्वोक्त चार में से अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण रूप लोभ उपशांत हो तब शेष मिश्र और मिथ्यात्व मोहनीय रूप दो प्रकृतियां संक्रम में होती हैं । अथवा क्षपक के पूर्वोक्त तीन प्रकृतियों में से संज्वलन क्रोध का क्षय हो तब दो प्रकृतियां संक्रमित होती हैं । उसी के संज्वलन मान का क्षय हो तब एक संज्वलन माया संक्रमित होती है |
इस प्रकार विचार करने पर अट्ठाईस, चौबीस, सत्रह, सोलह और पन्द्रह प्रकृति रूप संक्रमस्थान संभव नहीं होने से उनका निषेध किया है । उनके सिवाय शेष तेईस संक्रमस्थान जानना चाहिये । सुगमता से समझने के लिये श्रेणीगत संक्रमस्थानों का दिग्दर्शक प्रारूप इस प्रकार है
घटित होने के स्थान
क्षायिकसम्यक्त्व उपशमश्र णि में ही उपशमसम्यक्त्व उपशमश्र ेणि में ही क्षपकश्रण में ही तीनों श्र ेणियों में
क्षपकश्रेणि तथा उपशमसम्यक्त्व उपशमश्रेण इन दोनों में क्षपकश्रेणि तथा क्षायिक सम्यक्त्व उपशमश्र णि इन दोनों में उपशमसम्यक्त्व, उपशमश्र ेणि क्षायिकसम्यक्त्व
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कितने
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३३
कितने प्रकृतिक
१६,१८, ६, ६ १४,७
१, ११,२ १३,१०,४,२
१२,३
१८,५,२०
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