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________________ २८ पंचसंग्रह : ७ मोहनीयकर्म के संक्रमस्थान ___ मोहनीयकर्म के पन्द्रह सत्तास्थान इस प्रकार हैं-अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक । किन्तु संक्रमस्थान तेईस हैं । वे इस प्रकार—एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, अठारह, उन्नीस, बीस, इक्कीस, बाईस, तेईस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस प्रकृतिक । यद्यपि सत्तास्थान में अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक का भी ग्रहण किया है, लेकिन संक्रम में नहीं होने से उन दोनों सत्तास्थानों को संक्रमस्थानों में नहीं गिना है । इसका कारण यह है कि अट्ठाईस की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय का पतद्ग्रह है, इसलिये मिथ्यात्व के सिवाय शेष सत्ताईस प्रकृतियां ही संक्रमित होती हैं, किन्तु अट्ठाईस संक्रांत नहीं होती हैं। उनमें से चारित्रमोहनीय की पच्चीस प्रकृतियां चारित्रमोहनीय में परस्पर संक्रमित होती हैं और मिथ्यात्वमोहनीय में मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय संक्रमित होती हैं। क्योंकि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का परस्पर संक्रम नहीं होता है । इसी प्रकार अनन्तानुबंधि का विसंयोजक चौबीस की सत्ता वाले सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वमोहनीय मिश्र और मिथ्यात्व मोहनीय की पतद्ग्रह होने से उसके बिना शेष तेईस प्रकृतियां ही संक्रमित होती हैं, चौबीस नहीं। इसलिये चौबीस प्रकृति रूप संक्रमस्थान नहीं है तथा पन्द्रह, सोलह और सत्रह प्रकृतिक रूप तीन संक्रमस्थान नहीं होने का कारण जब सभी संक्रमस्थानों का विचार करेंगे, उससे ज्ञात होगा, अतएव उनको यहाँ स्पष्ट नहीं किया है। अब शेष संक्रमस्थानों का विचार करते हैं सम्यक्त्वमोहनीय की उद्वलना होने के पश्चात् सत्ताईस की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व मिश्रमोहनीय का पतद्ग्रह होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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