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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११,१२ २७ होता है । जिससे बंधने वाली प्रकृति पतद्ग्रहरूप है और नहीं बंधने वाली प्रकृति संक्रम करने वाली है । यदि दोनों प्रकृतियां एक साथ बंधती होती तो ज्ञानावरण की तरह परस्पर संक्रम हो सकता था, अर्थात् दोनों प्रकृतियां पतद्ग्रहरूप और संक्रमरूप घटित हो सकती थीं, किन्तु वैसा नहीं होने से एक-एक प्रकृति रूप ही संक्रमस्थान समझना चाहिये। वह इस प्रकार--सातावेदनीय और असातावेदनीय इन दोनों की सत्ता वाले सातावेदनीय के बंधक मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान पर्यन्त के जीव जब सातावेदनीय का बंध करते हैं तब पतद्ग्रहरूप उस प्रकृति में असातावेदनीय को संक्रमित करते हैं। इसी प्रकार साता-असातावेदनीय इन दोनों की सत्ता वाले असातावेदनीय के बंधक मिथ्यादृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत पर्यन्तवर्ती जीव जब असातावेगनीय बांधे तब पतद्ग्रह रूप उस प्रकृति में सातावेदनीय को संक्रमित करते हैं । इस प्रकार साता-असातावेदनीय का एक प्रकृतिरूप संक्रमस्थान और एक प्रकृति रूप पतद्ग्रहस्थान होता है। __उच्चगोत्र के बंधक मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसंपराय पर्यन्तवर्ती जीव जब उच्चगोत्र का बंध करें तब पतद्ग्रह रूप उस प्रकृति में नीचगोत्र संक्रमित करते हैं और उच्च-नीच दोनों की सत्ता वाले नीचगोत्र के बंधक मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानवी जीव जब नीचगोत्र का बंध करें तब बंधने वाली उस प्रकृति में उच्चगोत्र संक्रमित करते हैं । इस प्रकार गोत्रकर्म में भी एक संक्रमस्थान और एक पतद्ग्रहस्थान संभव है। __ आयुकर्म की प्रकृतियों में परस्पर संक्रम नहीं होता है । अतः उनमें पतद्ग्रहादित्व भी संभव नहीं हैं। नामकर्म के संक्रमस्थानों और पतद्ग्रहस्थानों का पृथक् से आगे विचार किया जायेगा। अतएव अब मोहनीयकर्म के संक्रम और पतद्ग्रह स्थानों का विचार करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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