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पंचसंग्रह : ७
इसी प्रकार सर्वत्र संक्रम करने वालों में पर्यन्तवर्ती कौन है, यह जान लेना चाहिये । अर्थात् जिस गुणस्थान तक पतद्ग्रहप्रकृति का सद्भाव होने से जिस प्रकृति का संक्रम होता हो, उस गुणस्थान वाला जीव उस प्रकृति का अंतिम संक्रमक - संक्रमित करने वाला समझना चाहिये ।
इसी तरह अनन्तानबंधि के संक्रमस्वामी मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक के जीव समझना चाहिये । आगे के गुणस्थानों में अनन्तानुबंधि का सर्वथा उपशम या क्षय होने से संक्रम नहीं होता है ।
यशः कीर्ति के मिथ्यादृष्टि से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग तक के जीव संक्रम के स्वामी हैं, ऊपर के गुणस्थानवर्ती जीव नहीं हैं । क्योंकि मात्र यशःकीर्ति का ही बंध होने से वह पतदुग्रहप्रकृति है, संक्रांत होने वाली नहीं है ।
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अनन्तानुबंध के सिवाय बारह कषाय और नव नोकषाय के संक्रम के स्वामी मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान तक के जीव जानना चाहिये । अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में कषाय और नोकषाय का सर्वथा उपशम अथवा क्षय हो जाने से आगे के गुणस्थानों में उनका संक्रम नहीं होता है ।
जिन प्रकृतियों का नामोल्लेख किया गया है और बाद में जिनका नाम कहा जायेगा उनके सिवाय ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, असातावेदनीय, 1 यशः कीर्ति के सिवाय नामकर्म की सभी प्रकृति, नीचगोत्र और अंतराय पंचक इन सभी प्रकृतियों के मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के जीव संक्रमस्वामी जानना चाहिये, ऊपर के गुणस्थानवर्ती जीव नहीं । क्योंकि उपशांतमोहादि
९. यद्यपि ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक में साता का बंध होता है, परन्तु उस बंध को कषायनिमित्तक नहीं होने से उसकी पतद्ग्रह के रूप में विवक्षा नहीं की है । जिससे उसमें असाता का संक्रम नहीं होता ।
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