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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा :
मिथ्यात्व और मिश्र ये दो दर्शनमोहनीय, जइपुवा-अनुक्रम से प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवर्ती, संकामगंत-संक्रम करने वाले, कमसो--क्रम से, सम्मुच्चाणं-सम्यवत्वमोहनीय और उच्चगोत्र का, पढमदुइया-प्रथम और द्वितीय गुणस्थानवी जीव ।।
गाथार्थ-सातावेदनीय, अनन्तानुबंधि, यशःकीति, कषाय और नोकषाय इस प्रकार दो प्रकार की कषाय, शेष प्रकृतियों और मिथ्यात्व एवं मिश्र दर्शनमोहनीय, इन प्रकृतियों के संक्रम करने वाले अनुक्रम से प्रमत्तसंयतादि गुणस्थान तक के जीव हैं तथा सम्यक्त्वमोहनीय और उच्चगोत्र के अनुक्रम से पहले और दूसरे गुणस्थानवर्ती जीव हैं।
विशेषार्थ-इस गाथा में संक्रम के स्वामियों का निर्देश किया है। वह इस प्रकार___ सातावेदनीय, अनन्तानुबंधि, यशःकीर्ति, अनन्तानुबंधि के सिवाय शेष बारह कषाय और नोकषाय इस तरह दो प्रकार की कषाय, शेष कर्मप्रकृति और सम्यक्त्वमोहनीय तथा मिश्रमोहनीय रूप दो दर्शनमोहनीय, इन सभी कर्मप्रकृतियों के संक्रम करने वाले अनुक्रम से प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवी जीव हैं । अर्थात् उक्त प्रकृतियों के संक्रमस्वामी उस-उस गुणस्थान तक के जीव हैं तथा सम्यक्त्वमोहनीय और उच्चगोत्र को अनुक्रम से पहले और दूसरे गुणस्थान तक के जीव संक्रमित करते हैं।
उक्त संक्षिप्त कथन का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
सातावेदनीय के संक्रम के स्वामी मिथ्यादृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के जीव हैं, उससे उपरिवर्ती गुणस्थान वाले जीव नहीं हैं। क्योंकि अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में असातावेदनीय का बंध नहीं होता है, साता का ही बंध होता है, जिससे असाता का साता में संक्रम होता है। पतद्ग्रह का अभाव होने से सातावेदनीय का संक्रम नहीं होता है। इसलिये सातावेदनीय का संक्रम करने वालों में अंतिम प्रमत्तसंयत जीव ही समझना चाहिये।
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