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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३,४ मोहनीय में और चारित्रमोहनीय का दर्शनमोहनीय में संक्रमण नहीं होता है-“दंसकसाया न अन्नोन्न' । परन्तु इस सम्बन्ध में एक विचारणीय प्रश्न यह है यद्यपि यहाँ की तरह कर्मप्रकृति संक्रमकरण में भी दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का परस्पर संक्रम न होने का स्पष्ट उल्लेख है, परन्तु नव्यशतक गाथा ६६ की वृत्ति में श्रीमद् देवेन्द्रसूरि ने तथा विशेषावश्यक बृहद्वृत्ति, आवश्यकचूणि आदि में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करते हुए अनन्तानुबंधि का क्षय करने वाला जीव अनन्तानुबंधि(चारित्रमोहनीय की प्रकृति) का अनन्तवां भाग मिथ्यात्वमोहनीयं में संक्रान्त करता है और उसके बाद अनन्तानुबंधि सहित मिथ्यात्वमोह का क्षय करता है, इस प्रकार अनन्तानुबंधि का मिथ्यात्वमोहनीय में संक्रम होता है-ऐसा सूचित किया है । विद्वान इसका समाधान करने की कृपा करें। ___इसका सम्भव समाधान यह हो सकता है कि पहले यह जान लेना चाहिये कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय की प्रकृतियां कौनकौन हैं। क्योंकि इसी ग्रंथ के तीसरे अधिकार, कर्मग्रंथ और आचारांगवृत्ति आदि ग्रथों में मिथ्यात्वादिकत्रिक को दर्शनमोहनीय की और शेष अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क आदि पच्चीस प्रकृतियों को चारित्रमोहनीय की प्रकृति बतलाया है, जबकि तत्त्वार्थ की टीका में अनन्तानुबंधिचतुष्क और दर्शनत्रिक इन सात प्रकृतियों को दर्शनमोहनीय और शेष इक्कीस प्रकृतियों को चारित्रमोहनीय में परिगणित किया है तथा अनन्तानुबंधिचतुष्क भी दर्शनगुण का ही घात करती है, जिससे अन्य ग्रथों में भी इन सात प्रकृतियों को 'दर्शनसप्तक' के रूप में बताया है। अब यदि दर्शनमोहनीय यानि अनन्तानबंधि आदि सात प्रकृतियों को ग्रहण करें तो दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का परस्पर संक्रम नहीं होता है, यह पाठ और 'अनन्तानुबंधि का मिथ्यात्वमोहनीय में संक्रम हुआ' यह पाठ संगत हो सकता है तथा मात्र दर्शनत्रिक को दर्शनमोहनीय से ग्रहण किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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