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________________ पंचसंग्रह : ७ संकामंति-संक्रमित करता है, न-नहीं, भाउं-आयु का, उवसंतउपशांत, तह-तथा, य-और, मूलपगईओ-मूल प्रकृतियां, पगइठाणविभेया-प्रकृति और स्थान के भेद से, संकमणपडिग्गहा-संक्रमण और पतद्ग्रह, दुविहा-दो-दो प्रकार । __ गाथार्थ-कोई जीव अपनी-अपनी दृष्टि को अन्यत्र संक्रमित नहीं करता है। दूसरे और तीसरे गुणस्थान वाले दर्शनत्रिक को संक्रांत नहीं करते हैं। मिश्रमोहनीय में सम्यक्त्वमोहनीय का संक्रम नहीं होता तथा दर्शनमोहनीय और कषायमोहनीय (चारित्रमोहनीय) का परस्पर संक्रम नहीं होता है। आयु का परस्पर संक्रम नहीं होता तथा उपशांत दलिक का एवं मूल प्रकृतियों का परस्पर संक्रम नहीं होता है । प्रकृति और स्थान के भेद से संक्रम और पतद्ग्रह के दो-दो प्रकार होते हैं । विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में संक्रम के लक्षण के अपवाद और संक्रम तथा पतद्ग्रह के दो-दो प्रकार होने का संकेत किया है। उनमें से पहले अपवाद विषयक स्पष्टीकरण करते हैं-- ____ 'नियनिय दिट्ठि न केई' अर्थात् कोई भी जीव अपनी-अपनी दृष्टि को अन्यत्र संक्रमित नहीं करता है, यानि कोई भी जीव जिन्हें जिस दर्शनमोहनीयत्रिक का उदय हो, वे उस दर्शनमोहनीय को अन्य प्रकृति रूप नहीं करते हैं। जैसे कि मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वमोहनीय को अन्यत्र संक्रमित नहीं करता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि मिश्रमोहनीय को और सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्वमोहनीय को अन्य प्रकृति में संक्रांत नहीं करता है। __'दुइयतइज्जा न दंसणतिगंणि'-दूसरे सासादनगुणस्थान और तीसरे सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थान वाले जीव दर्शनमोहत्रिक में से किसी भी प्रकृति का संक्रम नहीं करते हैं तथा मिश्रमोहनीय में सम्यक्त्वमोहनीय का संक्रमण नहीं होता है----'मीसंमि न सम्मत्तं' । दर्शनमोहनीय और कषायमोहनीय (चारित्रमोहनीय) इन दोनों का परस्पर संक्रमण नहीं होता है, अर्थात् दर्शनमोहनीय का चारित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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