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________________ २८२ पंचसंग्रह : ७ उससे व्याघात में एक वर्गणाहीन अनुभागकंडक अनन्तगुण है। उससे दोनों में उत्कृष्ट निक्षेप विशेषाधिक है, परस्पर तुल्य है और उससे कुल सत्ता विशेषाधिक है। विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में अनुभाग उद्वर्तना-अपवर्तना का संयुक्त अल्पबहुत्व का निरूपण किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है___ एक स्थिति-स्थितिस्थान में रही कर्मवर्गणाओं के उत्तरोत्तर बढ़ती रसाणु वाली वर्गणा के क्रम से जितने स्पर्धक हों, उनको क्रमश: इस प्रकार से स्थापित किया जाये कि सर्वजघन्य रस वाला स्पर्धक पहला, दूसरा उससे विशेषाधिक रस वाला, उससे विशेषाधिक रस वाला तीसरा, यावत् सर्वोत्कृष्ट रस वाला अंतिम । उनमें पहले स्पर्धक से लेकर अनुक्रम से आगे-आगे के स्पर्धक प्रदेश की अपेक्षा हीन-हीन होते हैं। क्योंकि अधिक-अधिक रस वाले स्पर्धक तथास्वभाव से हीन-हीन प्रदेश वाले होते हैं और अंतिम स्पर्धक से लेकर पश्चानुपूर्वी के क्रम से प्रदेशापेक्षा विशेषाधिक-विशेषाधिक होते हैं। उनमें द्विगुणवृद्धि या द्विगुणहानि के एक अंतर में जिन रसस्पर्धकों का समुदाय होता है, जिसका बाद में कथन किया जायेगा उनकी अपेक्षा अल्प हैं अथवा स्नेहप्रत्यय स्पर्धक के अनुभाग के विषय में प्रदेश की अपेक्षा जो द्विगुणवृद्धि या द्विगुणहानि कही है, उस द्विगुणवृद्धि अथवा द्विगुणहानि के एक अंतर में जो अनुभाग पटलरससमूह-समस्त रस होता है, उससे अल्प है। उससे उद्वर्तना और अपवर्तना इन दोनों में जघन्य निक्षेप अनन्त गुण हैं और परस्पर में तुल्य है। यद्यपि उवर्तना में जघन्य निक्षेप आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति में रहे हुए स्पर्धक हैं और अपवर्तना में आवलिका के समयाधिक तीसरे भाग प्रमाण स्थिति में रहे हुए स्पर्धक हैं, तथापि प्रारम्भ की स्थितियों में स्पर्धक अल्प और अंतिम स्थितियों में अधिक होते हैं, इसलिये स्थिति में हीनाधिकपना होने पर भी स्पर्धक की अपेक्षा दोनों में निक्षेप तुल्य है। इसी प्रकार अतीत्था For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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