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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११, १२ २६६ अपवर्तना का सामान्य नियम
इच्छोवट्टणठिइठाणगाउ उल्लंघिऊण आवलियं । निक्खिवइ तद्दलियं अह ठितिठाणेसु सन्वेसु ॥११॥ शब्दार्थ-इच्छोवट्टणठिइठाणगाउ-इष्ट अपवर्तनीय स्थितिस्थान से, उल्लंघिऊण-उलांघकर , आवलियं—आवलिका को, निक्खिवइ-निक्षिप्त किया जाता है, तद्दलियं-उसके दलिक को, अह--अथ-अब, ठितिठाणेसु-- स्थितिस्थानों में, सन्वेसु-सब ।
गाथार्थ-इष्ट अपवर्तनीय स्थितिस्थान से आवलिका को उलांघकर उसके दलिक का सब स्थितिस्थानों में निक्षिप्त किया जाता है।
विशेषार्थ-जिस-जिस स्थान की अपवर्तना करना इष्ट हो, अर्थात् जीव जिस-जिस स्थितिस्थान की अपवर्तना करता है उसके दलिक को उसके नीचे के स्थान से आवलिका प्रमाण स्थितिस्थानों को उलांघकर नीचे रहे समस्त स्थानों में निक्षिप्त करता है। इस प्रकार होने से जब सत्ता में रही हुई स्थिति में के अंतिम स्थितिस्थान की अपवर्तना करता है तब उसके दलिक को उसके नीचे के स्थान से आवलिका प्रमाण स्थितिस्थानों को उलांघकर नीचे रहे हए समस्त स्थितिस्थानों में निक्षिप्त कर सकता है। जिस समय कर्म बंधता है, उस समय से एक आवलिका जाने के बाद उसकी अपवर्तना करता है, इसलिये बंधावलिका के व्यतीत होने के बाद समयाधिक अतीत्थापनावलिका रहित सम्पूर्ण कर्मस्थिति उत्कृष्ट निक्षेप की विषय रूप है। तथा
उदयावलिउवरित्थं ठाणं अहिकिच्च होइ अइहीणो। निक्खेवो सव्वोवरिठिइठाणवसा भवे परमो ॥१२॥ शब्दार्थ----उदयावलिउवरित्थं-उदयावलिका से ऊपर रहे, ठाणंस्थाम, अहिकिच्च-अधिकृत करके, होइ-होता है, अइहीणो
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