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________________ २६८ पंचसंग्रह : ७ अतीत्थापना दो समय से अधिक होती है और निक्षेप उतना ही रहता है। इस प्रकार से अतीत्थापना की आवलिका पूर्ण न हो वहाँ तक अतीत्थापना बढ़ती है और उसके बाद निक्षेप में वृद्धि होती है। अब इसी आशय को विशेष रूप से स्पष्ट करते हैं उदयावलि उवरित्था एमेवोवट्टए ठिइट्ठाणा। जावावलियतिभागो समयाहिगो सेसठितिणं तु ॥१०॥ शब्दार्थ-उदयावलि उवरित्था-उदयावलिका से ऊपर के, एमेवोवट्टए-इसी प्रकार से अपवर्तना होती है, ठिइट्ठाणा-स्थितिस्थान, जावावलियतिभागो-~~-यावत् आवलिका के तीसरे भाग, समयाहिगो-समय अधिक, सेसठितिणं-शेष स्थिति निक्षेप विषय का, तु-और । गाथार्थ-अतीत्थापना की आवलिका पूर्ण होने तक उदयावलिका से ऊपर के स्थितिस्थानों की अपवर्तना इसी प्रकार से (ऊपर कहे अनुसार) होती है और इस अतीत्थापना की आवलिका जब तक पूर्ण न हो तब तक निक्षेप विषयक स्थिति समयाधिक तीसरा भाग ही रहती है। विशेषार्थ-पूर्वोक्त रीति से उदयावलिका से ऊपर रहे हुए स्थितिस्थानों की तब तक अपवर्तना होती है यावत् अतीत्थापनावलिका पूर्ण हो। जब तक अतीत्थापनावलिका पूर्ण न हो तब तक निक्षेप के विषय रूप स्थितिस्थान समयाधिक आवलिका का तीसरे भाग ही रहते हैं। किन्तु अतीत्थापना की आवलिका पूर्ण होने के बाद अतीत्थापना आवलिका मात्र ही रहती है और निक्षेप के विषयरूप स्थितिस्थान बढ़ते हैं और वे निक्षेप के विषयरूप स्थितिस्थान अतीत्थापनावलिका से रहित संपूर्ण कर्मस्थिति प्रमाण हैं। इस प्रकार से स्थिति-अपवर्तना की विधि का कथन करने के पश्चात अब अपवर्तना के सामान्य नियम का निर्देश करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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