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________________ २६४ पंचसंग्रह : ७ इस प्रकार से नवीन कर्म का बंध समयादि बढ़ने पर अतीत्थापना बढती है और वह वहां तक बढ़ती है कि एक आवलिका पूर्ण हो। जब तक अतीत्थापना की आवलिका पूर्ण न हो तब तक निक्षेप आवलिका का असंख्यातवां भाग ही रहता है। जैसे कि सत्तागत स्थिति से असंख्यातवें भागाधिक आवलिका अधिक अभिनव-नवीन स्थिति का बंध होता है तब सत्तागत स्थितियों के चरम स्थान के दलिकों का उसके ऊपर के स्थान से पूर्ण एक आवलिका को उलांघकर ऊपर के अंतिम आवलिका के असंख्यातवें भाग में निक्षेप होता है, इस समय पूरी एक आवलिका अतीत्थापना और आवलिका के एक असंख्यातवें भाग प्रमाण निक्षेप के स्थान हैं, उसके बाद जैसे-जैसे सत्तागत स्थिति से अभिनव कर्म का स्थितिबंध बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे निक्षेप में वृद्धि होती जाती है और अतीत्थापना एक आवलिका ही रहती है। उक्त समग्र कथन का सारांश यह हुआ कि जब सत्ता में रही हुई स्थिति की अपेक्षा अभिनव-नवीन स्थितिबंध आवलिका के दो असंख्यातवें भाग अधिक होता है तब सत्ता में रही स्थिति में की चरम स्थिति-स्थितिस्थान की उद्वर्तना होती है और उद्वर्तना करके उस चरम स्थिति के दलिक को आवलिका के पहले असंख्यातवें भाग को उलांघकर दूसरे असंख्यातवें भाग में प्रक्षेप किया जाता है । सत्तागत स्थिति के चरम समय में फल देने के लिये नियत हुए दलिक को उसके बाद से आवलिका का असंख्यातवें भाग जाने के अनन्तर आवलिका के अंतिम असंख्यातवें भाग में फल देने के लिये नियत हुए दलिकों के साथ फल दे, ऐसा किया जाता है । आवलिका का असंख्यातवाँ भाग प्रमाण यह अतीत्थापना और आवलिका का असंख्यातवां भाग प्रमाण निक्षेप यह जघन्य है। तत्पश्चात अभिनव स्थितिबंध में समयादिक द्वारा वृद्धि होने पर अतीत्थापना बढ़ती है और वह वहाँ तक बढ़ती है यावत् एक आवलिका पूर्ण हो। अतीत्थापना की आवलिका पूर्ण होने तक निक्षेप आवलिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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