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________________ संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६,७,८ में प्रक्षिप्त किया जाता है । उसी प्रकार सत्तागत स्थिति से जब तक आवलिका के दो असंख्यातवें भाग अधिक बंध न हो, तब तक भी सत्तागत स्थिति में के चरम, द्विचरम यावत् आवलिका और आवलिका के असंख्यातवें भाग में रही हुई किसी स्थिति की उद्वर्तना नहीं होती है, परन्तु उसके नीचे के स्थान की उद्वर्तना होती है । और उसके दलिक को उसके ऊपर के स्थितिस्थान से आवलिका छोड़ ऊपर के जितने स्थान हों उन सब में प्रक्षेप होता है । यहां मात्र निक्षेप की ही वृद्धि हुई, क्योंकि यहाँ निक्षेप लगभग आवलिका के तीन असंख्यातवें भाग प्रमाण हुआ । २६३ जब सत्तागत स्थिति से बराबर आवलिका के दो असंख्यातवें भाग अधिक स्थितिबंध हो तब सत्तागत स्थिति में के चरम स्थितिस्थान की उद्वर्तना होती है । उस समय सत्तागत स्थिति से आवलिका के दो असंख्यातवें भाग अधिक स्थितिबंध हुआ, यानि आवलिका का एक पहला असंख्यातवां भाग अतीत्थापना और आवलिका का दूसरा असंख्यातवां भाग निक्षेप होता है । अर्थात् सबसे कम निक्षेप और अतीत्थापना इस तरह और इतनी ही होती है । उद्वर्तना में इससे कम निक्षेप और अतीत्थापना नहीं होती है । जब समयाधिक आवलिका के दो असंख्यातवें भाग अधिक नवीन कर्म का बंध होता है, तब चरम स्थान के दलिक को उसके ऊपर के स्थान से समयाधिक आवलिका के असंख्यातवें भाग को उलांघने के बाद अंतिम आवलिका के असंख्यातवें भाग में निक्षिप्त किया जाता है । यहाँ निक्षेप के स्थान तो उतने ही रहेंगे मात्र अतीत्थापना समय प्रमाण बढ़ी । १ जितनी स्थिति को उलांघकर उदुवर्तित किये जाते स्थान के दलिक प्रक्षिप्त किये जाते हैं, वह उलांघने योग्य स्थिति अतीत्थापना कहलाती है और जितने स्थान में प्रक्षिप्त होते हैं, उन्हें निक्षेप स्थान कहते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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