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________________ संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६, ७, ८ २६१ गाथार्थ - व्याघात के अभाव में होने वाली उद्वर्तना और दलिक निक्षेप विधि पूर्वोक्त प्रकार है । सत्ता से अधिक होने वाले कर्मबंध को व्याघात कहते हैं । व्याघात में आवलिका का असंख्यातवां भाग जघन्य और उत्कृष्ट यावत् आवलिका अतीत्थापना है। सत्तागत स्थिति से अभिनव -नया स्थितिबंध जब आवलिका के दो असंख्यातवें भाग प्रमाण बढ़ता है— होता है तब सत्तागत स्थिति में की चरम स्थिति की उद्वर्तना होती है और एक आवलिका - पूर्ण आवलिका होने तक अतात्थापना बढ़ती है । अतीत्थापनावलिका की पूर्णता होने पर निषेक बढ़ता है। स्थितिउद्वर्तना का स्वरूप इस प्रकार है । अब स्थिति-अपवर्तना का वर्णन किया जायेगा । विशेषार्थ - इन तीन गाथाओं में व्याघातभाविनी स्थितिउद्वर्तना की व्याख्या करके उपसंहारपूर्वक स्थिति अपवर्तना का वर्णन प्रारंभ करने का संकेत किया है । प्रथम व्याघातभाविनी स्थिति उद्वर्तना की व्याख्या करते हैं- सत्ता में रही हुई स्थिति की अपेक्षा अधिक नवीन स्थिति के कर्मबंध करने को व्याघात कहते हैं । उस समय आवलिका का असंख्यातवाँ भाग अतीत्थापना है और वह बढ़ते पूर्ण आवलिका प्रमाण होती है । तात्पर्य इस प्रकार है सत्ता में विद्यमान स्थिति की अपेक्षा समय, दो समय आदि द्वारा अधिक कर्म का जो नवीन बंध होता है, उसे यहाँ व्याघात कहा गया है । उस समय अतीत्थापना जघन्य से आवलिका का असंख्यातवां भाग होती है । वह इस प्रकार - सत्तागत स्थिति से समय मात्र अधिक कर्म का नवीन स्थितिबंध हो तब पूर्व की सत्तागत स्थिति में के चरम स्थितिस्थान की उद्वर्तना नहीं होती है, द्विचरम - उपान्त्य स्थिति की उद्वर्तना नहीं होती है । इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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