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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५ २५६ जैसे कि सत्ता के समान स्थिति का जब बंध हो तब ऊपर के स्थान से आवलिका और आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति में के किसी भी स्थितिस्थान की उद्वर्तना नहीं होती है, उसके नीचे के स्थितिस्थान की उद्वर्तना होती है । जब उस स्थितिस्थान की उद्वर्तना हो तब उसकी अपेक्षा आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्यनिक्षेप संभव है और मध्य के स्थितिस्थानों की अपेक्षा मध्यम निक्षेप होता है। ___ इस प्रकार से निक्षेप का निर्देश करने के बाद अब उद्वर्तनायोग्य स्थितियों का प्रमाण बतलाते हैं। उद्वर्तनायोग्य स्थितियां उक्कोसगठितिबंधे बंधावलिया अबाहमेत्तं च । निक्खेवं च जहण्णं मोत्तं उव्वट्टए सेसं ॥५॥ शब्दार्थ-उक्कोसगठितिबंधे----उत्कृष्ट स्थिति बंध होने पर, बंधावलिया-बंधावलिका, अबाहमेत्तं-अबाधा मात्र, च-और, निक्खेवंनिक्षेप, च-और, जहण्णं----जघन्य, मोत्तं -छोड़कर, उध्वट्टए-उद्वर्तना होती है, सेसं—शेष की। गाथार्थ उत्कृष्ट स्थिति बंध होने पर बंधावलिका अबाधा और जघन्य निक्षेप मात्र को छोड़कर शेष स्थितियों की उद्वर्तना होती है। विशेषार्थ --उत्कृष्ट स्थितिबंध हो तब बंधावलिका प्रमाण स्थिति बंधती हुई स्थिति की अबाधाप्रमाण सत्तागत स्थिति और जघन्य निक्षेप प्रमाण स्थिति को छोड़कर शेष समस्त स्थिति की उद्वर्तना होती है। ____ जघन्य निक्षेप प्रमाण स्थिति के ग्रहण से अंत की आवलिका और आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति समझना चाहिये। क्योंकि उतनी स्थिति की उद्वर्तना नहीं होती है। जिसका स्पष्टीकरण पूर्व में किया जा चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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