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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११६ २४१ एकेन्द्रियजाति आदि का जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व इगिविगलायवथावरचउक्कमबंधिऊण पणसीयं । अयरसयं छट्ठीए बावीसयरं जहा पुत्वं ॥११६॥ शब्दार्थ-इगिविगलायवथावरचउक्कं--एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावरचतुष्क का, अबंधिऊण—बिना बांधे, पणसीयं-पचासी, अयरसयं-सौ सागरोपम, छट्ठीए-छठवीं नरकपृथ्वी के, बावीसयरं—बाईस सागरोपम, जहा पुव्वं--शेष पूर्व में कहे अनुसार । गाथार्थ-एक सौ पचासी सागरोपम पर्यन्त बिना बांधे क्षय करते यथाप्रवृत्तकरण के अंत में एकेन्दिय, विकलेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावरचतुष्क का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। छठी नरकपृथ्वी के वाईस सागरोपम के साथ पूर्व में कहे एक सौ सठ सागरोपम के अबंधकाल को जोड़ने से एक सौ पचासी सागरोपम होते हैं। विशेषार्थ-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय रूप जातिचतुष्क, आतप तथा स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त रूप स्थावरचतुष्क, इन नौ प्रकृतियों को चार पल्योपम अधिक एक सौ पचासी सागरोपम तक बांधे बिना उस सम्यक्त्व के काल के अंत में अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोपम प्रमाण सम्यक्त्व का जो काल है, उसके चरम अन्तर्मुहूर्त में क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होने वाला यथाप्रवृत्तकरण. के अंत समय में जघन्य प्रदेशसंक्रम करता है। इतने काल पर्यन्त इन नौ प्रकृतियों को गुण या भव के निमित्त से बांधता नहीं है तथा संक्रम एवं प्रदेशोदय द्वारा अल्प करता है, जिसके सत्ता में अल्प दलिक रहते हैं । अल्प रहे दलिकों को अप्रमत्तसंयतगुणस्थान के चरमसमय में जो संक्रमित करता है, वह इन प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम कहलाता है । अपूर्वकरण से तो गुणसंक्रम प्रवर्तित होता है, जिससे जघन्य प्रदेशसंक्रम नहीं हो सकता है। इसीलिये अप्रमत्तसंयत का चरमसमय ग्रहण किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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