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पंचसंग्रह : ७
सागरोपमा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का पालन कर उस सम्यक्त्व का काल अन्तमुहूर्त शेष रहे तब शीघ्र क्षय करने के लिये प्रयत्नशील हो । क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हुए जीव के यथाप्रवृत्तकरण-अप्रमत्तसंयतगुणस्थान के चरम समय में जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। अपूर्वकरण से गुणसंक्रम' प्रवर्तित होने से वहाँ जघन्य प्रदेशसंक्रम नहीं होता है। . इस प्रकार संसारचक्र में भ्रमण करते चार पल्योपम अधिक एक सौ त्रेसठ सागरोपम पर्यन्त गुण या भव प्रत्यय से तिर्यंचद्विक और उद्योतनामकर्म बांधता नहीं और संक्रम, प्रदेशोदयादि द्वारा, कम करता है, जिससे क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होते अप्रमत्तसंयतगुणस्थान के अंत समय में उनका जघन्य प्रदेशसंक्रम घटित हो सकता है। श्रेणि पर आरूढ़ होते जो तीन करण करता है, उनमें का यथाप्रवृत्तकरण अप्रमत्तसंयतगुणस्थान जानना चाहिये।
१ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का अविरत काल छियासठ सागरापम का ह ।
वह बाईस-बाईस सागरोपम की आयु से तीन बार अच्युत देवलोक में जाकर पूर्ण करता है। तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त मिश्रगुणस्थान में जाकर दूसरी बार सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है और उसे तेतीस-तेतीस सागरोपम की आयु से अनुत्तर विमान में जाकर पूर्ण करता है। उस काल के अंतिम अन्तर्मुहूर्त में यदि क्षपकणि पर आरूढ़ न हो तो काल पूर्ण होने पर गिर कर मिथ्यात्व प्राप्त करता है। यह काल बीच में होने वाले मनुष्यभव द्वारा अधिक समझना चाहिये। यद्यपि उद्योतनामकर्म का गुणसंक्रम नहीं होता है । क्योंकि अबध्यमान अशुभ प्रकृतियों का गुणसंक्रम होता है। परन्तु जघन्य प्रदेशसंक्रम तो अप्रमत्तसंयतगुणस्थान के अंत समय में कहा है। क्योंकि अपूर्वकरण से उसका उद्वलनासंक्रम होता है। इसी प्रकार से आतपनामकर्म के लिये भी समझना चाहिये । क्योंकि नौवें गुणस्थान में आतपनामकर्म का भी क्षय किया जाता है।
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