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________________ २२६ पंचसंग्रह : ७ दर्शनावरण रहित दर्शनावरणत्रिक, निद्राद्विक और अंतरायपंचक, कुल मिलाकर अठारह प्रकृतियों का अपने बंध के चरम समय में यथाप्रवृत्तसंक्रम द्वारा संक्रमित करते हुए जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण का भी अपने बंधविच्छेद के समय ही जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है, परन्तु वह अवधिज्ञानविहीन जीव के होता है। इसका तात्पर्य यह है कि अवधिज्ञान जिसको उत्पन्न हुआ है, वैसे जीव के अवधिज्ञानावरण रहित ज्ञानावरणचतुष्क और अवधिदर्शनावरण रहित दर्शनावरणत्रिक इन सात प्रकृतियों का अपने-अपने बंधविच्छेद के समय क्षपितकर्मांश जीव के जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । अवधिज्ञान उत्पन्न करता जीव बहुत कर्मपुद्गलों को तथास्वभाव से क्षय करता है, जिससे उपर्युक्त प्रकृतियों के अपने बंधविच्छेद के समय सत्ता में अल्प पुद्गल ही रहते हैं । इसी कारण जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । यहाँ जघन्य प्रदेशसंक्रम का अधिकार है, इसलिये अवधिज्ञानयुक्त जीव को जघन्य प्रदेशसंक्रम का अधिकारी कहा है । बंधविच्छेद होने के बाद पतद्ग्रह नहीं होने से संक्रम होता ही नहीं है, इसलिये बंधविच्छेद समय ग्रहण किया है । निद्राद्विक, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा का भी अपने बंधविच्छेद के समय जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । क्योंकि बंधविच्छेद होने के बाद उनका गुणसंक्रम द्वारा संक्रम होता है । आठवें गुणस्थान से बंधविच्छेद होने के बाद अशुभ प्रकृतियों का गुणसंक्रम होता है, यह पूर्व में कहा जा चुका है और गुणसंक्रम द्वारा अधिक पुद्गल संक्रमित होते हैं, इसीलिये यह कहा हैं कि बंधविच्छेद के समय यथाप्रवृत्तसंक्रम द्वारा संक्रमित करते जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । अंतराय पंचक का भी अपने बंधविच्छेद के समय जघन्य प्रदेश - संक्रम होता है। क्योंकि बंधविच्छेद होने के बाद तो कोई पतद्ग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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