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________________ संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०६ २२५ चार बार चारित्रमोहनीय को सर्वथा उपशांत करके उसके बाद के भव में शीघ्र क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होकर कर्मों का क्षय करता जीव क्षपितकर्मांश - अत्यन्त अल्प कर्मप्रदेशों की सत्ता वाला कहलाता है । इस प्रकार के क्षपितकर्मांश जीव का जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व के विचार में प्रायः बहुलता से अधिकार है । क्योंकि ऐसे जीव को सत्ता में अत्यल्प कर्मप्रदेश होते हैं, जिससे संक्रम भी अल्प ही होता है । कतिपय प्रकृतियों के विषय में विशेष है, जिसका संकेत यथावसर किया जायेगा | इस प्रकार से क्षपितकर्मांश जीव का स्वरूप जानना चाहिये । अब जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व का निरूपण प्रारम्भ करते हैं । हास्यादि एवं मतिज्ञानावरणादि का जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व हासदुभयकुच्छाणं खीणंताणं च बंधवरिमंमि । समए अहापवत्तेण ओहिजयले अणोहिस्स ॥ १०६ ॥ शब्दार्थ- हासदुभयकुच्छाणं-- हास्यद्विक, भय और जुगुप्सा का, खोणंताणं- क्षीणमोहगुणस्थान में नाश होने वाली, च-- और, बंधचरिमंमि - बंध के चरम, समए – समय में, अहापबत्तेण - यथाप्रवृतसंक्रम द्वारा, ओहिजुयले — अवधिद्विक का, अणोहिस्स— अवधिज्ञानविहीन | गाथार्थ - हास्य द्विक, भय, जुगुप्सा और क्षीणमोहगुणस्थान में नाश होने वाली प्रकृतियों का अपने बंध के चरम समय में यथाप्रवृत्तसंक्रम द्वारा जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । उसमें से अवधिद्विक का अवधिज्ञानविहीन जीव के जघन्य प्रदेशसंक्रम जानना चाहिये । विशेषार्थ- हास्यद्विक- हास्य और रति, भय, जुगुप्सा तथा बारहवें क्षीण मोहगुणस्थान में जिन प्रकृतियों का सत्ता में से विच्छेद होता है ऐसी अवधिज्ञानावरण रहित ज्ञानावरणचतुष्क, अवधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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