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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१ २०३ वेदनीय में यथाप्रवृत्तसंक्रम द्वारा संक्रमित करते हुए सातावेदनीय का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करता है। तथा कम्मचउवके असुभाणबज्झमाणीण सुहुमरागते। संछोभणमि नियगे चउवीसाए नियटिस्स ॥१॥ शब्दार्थ-कम्मचउक्के-चार कर्म की, असुभाणबज्झमाणीण-अबध्यमान अशुभ प्रकृतियों का, सुहमरागते-सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में, संछभोणमि-संक्रमण, नियगे-अपने-अपने, चउवीसाए---चौबीस प्रकृतियों का, नियटिस्स-अनिवृत्तिबादर को । गाथार्थ-चार कर्म की अबध्यमान अशुभ प्रकृतियों का सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है तथा अनिवृत्तिबादर को अपने-अपने चरम संक्रम के समय में चौबीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। विशेषार्थ---सूक्ष्मसंपराय अवस्था में अबध्यमान दर्शनावरण, वेदनीय, नाम और गोत्र इन चार कर्मों की निद्राद्विक, असातावेदनीय, प्रथम बिना पांच संस्थान और पांच संहनन, अशुभ वर्णादि नवक, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अपर्याप्त, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति और नीचगोत्र रूप बत्तीस अशुभ १ साता-असाता ये दोनों परावर्तमान प्रकृति हैं, अतः अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल बंधती नहीं हैं। यहाँ सातवीं नरकपृथ्वी में जितनी बार अधिकसे-अधिक बंध सके, उतनी बार असाता को बांधकर उसको पुष्ट दलिक वाली करे, फिर वहाँ से मरण कर तिर्यंच में आकर प्रारम्भ के अन्तर्मुहूर्त में साता का बंध करे और पूर्व की असाता को संक्रमित करे । इस प्रकार संक्रम द्वारा और बंध द्वारा सातावेदनीय पुष्ट हो, जिससे उसकी बंधावलिका बीतने के बाद अनन्तर समय में बंधती हुई असाता में साता का उत्कृष्ट प्रदेश संक्रम करे । इस प्रकार से सातावेदनीय का उत्कृष्ट प्रदेश संक्रम सम्भव हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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