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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८५-८६
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स्वामित्व प्ररूपणा ____ अब स्वामित्व प्ररूपणा करने का क्रम प्राप्त है। वह दो प्रकार की है-उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्वामित्व और जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व । जघन्य प्रदेशसंक्रम का स्वामी क्षपितकर्माश और उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम का स्वामी गुणितकर्माश जीव है। उसमें भी औदारिकसप्तक, ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अंतरायपंचक इन इक्कीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम का स्वामी गुणितकर्माश मिथ्यादृष्टि है और शेष प्रकृतियों के स्वामी यथासंभव ऊपर के गुणस्थानवर्ती जीव हैं। जिसका स्पष्टीकरण यथास्थान आगे किया जा रहा है। परन्तु गुणितकर्माश किसे कहते हैं, उसका क्या स्वरूप है ? इसको स्पष्ट करने के लिये पहले गुणितकर्माश की व्याख्या करते हैं। गुणितकांश
बायरतसकालूणं कम्मठिइ जो उ बायरपुढवीए। पज्जत्तापज्जत्तदीहेयर आउगो वसिउं॥८॥ जोगकसाउक्कोसो बहसो आउं जहन्न जोगेणं । बंधिय उवरिल्लासु ठिइसु निसेगं बहु किच्चा ॥८६॥ बायरतप्तकालमेवं वसितु अंते य सत्तमक्खिइए। लहुपज्जत्तो बहुसो जोगकसायाहिओ होउं ॥८७॥ जोगजवमा उरि मुत्तमच्छितु जीवियवसाणे । तिचरिमदुचरिमसमए पूरित्तु कसायमुक्कोसं ॥८॥ जोगुक्कोसं दुचरिमे चरिमसमए उ चरिमसमयंमि। संपुन्नगुणियकम्मो पगयं तेणेह सामित्ते ॥८६॥
शब्दार्थ-बायरतसकालणं-बादर त्रसकाय को कायस्थिति काल से न्यून, कम्मठिइ-कर्मस्थिति, जो-जो, उ-और बायरपुढवीए-बादर
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