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पंचसंग्रह : ७
उक्त पांच संक्रम के अतिरिक्त स्तिबुकसंक्रम नाम का भी एक छठा प्रदेशसंक्रम है। किन्तु उसे छठे भेद के रूप में नहीं कहा है। क्योंकि उसमें करण का लक्षण घटित नहीं होता है। करण तो सलेश्य जीव के व्यापार को कहते हैं। अतः जहाँ-जहाँ लेश्यायुक्त वीर्य का व्यापार होता है वहाँ संक्रम, बंधन आदि करणों की प्रवृत्ति होती है। लेकिन स्तिबुकसंक्रम की प्रवृत्ति में वीर्यव्यापार कारण नहीं है, वह तो साहजिक रूप से होता है। इसके द्वारा किसी भी प्रकार के वीर्यव्यापार के बिना फल देने के सन्मुख हुआ एक समय मात्र में भोगा जाये इतना दलिक अन्य रूप होता है तथा यह भी विशेष है कि संक्रमकरण द्वारा अन्य स्वरूप हुआ कर्म अपने मूलस्वरूप को छोड़ देता है, जबकि स्तिबुकसंक्रम द्वारा अन्य में गया दलिक सर्वथा अपने मूल स्वरूप को छोड़ता नहीं है, यानि कि सर्वथा पतद्ग्रहप्रकृति रूप में परिणमित नहीं होता है। संक्रमकरण द्वारा बंधावलिका के जाने के बाद उदयावलिका से ऊपर का दलिक अन्य रूप होता है और स्तिबुकसंक्रम द्वारा उदयावलिका के उदयगत एक स्थान का ही दलिक उदयवती प्रकृति के उदयसमय में किसी भी प्रकार के प्रयत्न के सिवाय जाता है। यह स्तिबुकसंक्रम तो अलेश्य अयोगिकेवली भगवान को अयोगिकेवलिगुणस्थान के द्विचरमसमय में तिहत्तर प्रकृतियों का होता है । इस कारण स्तिबुकसंक्रम को आठ करण के अन्तर्गत ग्रहण नहीं किया है, फिर भी यहाँ उसका स्वरूप इसलिये कहते हैं कि वह भी एक प्रकार का संक्रम है। स्तिबुकसंक्रम
पिडपगईण जा उदयसंगया तीए अणुदयगयाओ।
संकामिऊण वेयइ जं एसो थिबुगसंकामो ॥८॥ शब्दार्थ-पिंडपगईण-पिंडप्रकृतियों का, जा-जो, उदयसंगया-उदयप्राप्त, तीए-उसमें, अणुदयगयाओ-अनुदयप्राप्त, संकामिऊण-संक्रामित
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