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सर्वसंकम
पंचसंग्रह : ७
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चरमठिईए रइयं पइसमयमसंखियं पएसगं । ता छुभइ अन्नपगई जावंते सव्वसंकामो ॥७८॥ शब्दार्थ- चरमठिईए — चरम स्थितिखंड में, रइयं – रचित, समयं --- प्रतिसमय, असंखियं-- असंख्यात गुणाकर रूप से, पएसग्गं - - प्रदेशाग्र, ता— तब तक, छुभइ — संक्रमित करता है, अन्नपगई — अन्य प्रकृति में, जावं - यावत् अंतिम, सव्वसंकामो - सर्व संक्रम ।
गाथार्थ - उद्बलनासंक्रम करते हुए चरमस्थितिखंड में स्वस्थानप्रक्षेप द्वारा जो दलिक रचित हैं, उन्हें अन्य प्रकृति में प्रतिसमय असंख्यात गुणाकार रूप से तब तक संक्रमित करता है, यावत् द्विचरम प्रक्षेप प्राप्त हो और अंतिम जो प्रक्षेप होता है उसे सर्व संक्रम कहते हैं ।
विशेषार्थ - यह पूर्व में बताया जा चुका है कि उवलनासंक्रम द्वारा पर और स्व में दलिक प्रक्षेप होता है और उसमें भी पर में अल्प एवं स्व में अधिक प्रक्षेप होता है। ऐसे उवलनासंक्रम द्वारा संक्रमित किये जाते स्वस्थानप्रक्षेप द्वारा चरमस्थितिखंड में जो दलिक रचित किया गया है-प्रक्षिप्त किया गया है, उसे पूर्व पूर्व समय से उत्तरोत्तर समय में असंख्यात असंख्यात गुणाकार रूप से अंतर्मुहूर्त पर्यन्त परप्रकृति में प्रक्षिप्त करता है और अन्तर्मुहूर्त काल में वह चरमखंड निर्लेप होता है ।
यह उवलनासंक्रम कहाँ तक कहलाता है और सर्वसंक्रम किसे कहते हैं ? इसका स्पष्टीकरण यह है
उवलनासंक्रम करते हुए स्वस्थान- प्रक्षेप द्वारा चरम स्थितिखंड में जो कर्मदलिक प्रक्षिप्त किया है, उसे प्रतिसमय परप्रकृति में असंख्यात-असंख्यात गुणाकार रूप से वहाँ तक संक्रमित करता है कि यावत् द्विचरम प्रक्षेप आता है । यहाँ तक तो उवलनासंक्रम कहलाता है और अन्तर्मुहूर्त के अन्तिम समय में जो चरम प्रक्षेप होता है, उसे सर्व संक्रम कहते हैं । तात्पर्य यह कि जिस प्रकृति में
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