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पंचसंग्रह : ७
शब्दार्थ - सम्ममीसाई - सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय को, मिच्छोमिथ्यादृष्टि जीव, सुरदुगवे उब्विछक्कमे गंदी-देवद्विक, वैक्रियपट्क का एकेन्द्रिय, सुहुमतसुच्चमणुदुर्ग - सूक्ष्मत्रस उच्चगोत्र और मनुष्यद्विक का अंतमुहुत्ते - अन्तर्मुहूर्त काल में, अणिअट्टी — अनिवृत्तिबादरसं परायगुणस्थानवर्ती जीव ।
गाथार्थ – सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय का मिथ्यादृष्टि जीव तथा देवद्विक एवं वैक्रियषट्क का एकेन्द्रिय जीव नाश ( उवलना) करता है और उच्चगोत्र तथा मनुष्यद्विक का सूक्ष्मत्रस नाश करता है । अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव अन्तर्मुहूर्त काल में (छत्तीस प्रकृतियों की ) उवलना करता है ।
विशेषार्थ – मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय की पूर्वोक्त प्रकार से पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल में उद्वलना करता है । नामकर्म की पंचानवै प्रकृतियों की सत्ता वाला एकेन्द्रिय जीव पहले देवद्विक की उवलना करता है, तत्पश्चात् वैक्रियशरीर, वैक्रियअंगोपांग, वैक्रियबंधन, वैक्रियसंघातन और नरकद्विक रूप वैक्रियषट्क को एक साथ पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल में उद्वलित करता है तथा सूक्ष्मत्रस - तेजस्काय और वायुकाय के जीव पहले उच्चगोत्र को और उसके बाद मनुष्यद्विक को पूर्वोक्त क्रम से पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल में उद्वेलित करते हैं ।
गाथा ७० के 'पलियासंखियभागेणं कुणइ पिल्लेव' इस अंश में उद्वलनासंक्रम द्वारा उद्वलित की जाती कर्मप्रकृतियों का सामान्य से पल्योपम का असंख्यातवां भाग प्रमाण जो काल बतलाया है, उसका यहाँ अपवाद कहते हैं - 'अणिअट्टी अंतमुहुत्तेण' अर्थात्, अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव पूर्वोक्त गाथा में कही गई छत्तीस प्रकृतियों को अन्तर्मुहूर्त काल में पूर्ण रूप से उद्वेलित करता है - नाश करता है तथा गाथा ७४ में कहा गया 'छत्तीस नियट्ठी'
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