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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७५
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शब्दार्थ-एवं-इस प्रकार से, उव्वलणासंकमेण-उद्वलनासंक्रम द्वारा, नासेइ-निर्मूल करता है, अविरओ---अविरत, आहार-आहारकसप्तक को, सम्मो-सम्यग्दृष्टि, अमिच्छमीसे-अनन्तानुबंधि, मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय, छत्तीस---छत्तीस प्रकृतियों का, नियट्ठी--अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवर्ती, जा-यावत्, पर्यन्त की, माया—माया।
गाथार्थ—इस प्रकार से उद्वलनासंक्रम द्वारा अविरत जीव आहारकसप्तक को निर्मूल करता है, सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबंधि, मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय का नाश करता है और माया तक की छत्तीस प्रकृतियों का अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव नाश करता है।
विशेषार्थ-उद्वलनासंक्रम द्वारा जिस प्रकार से कर्मप्रकृतियों को सत्ता में से निर्मूल करने की विधि पूर्व में कही है, उस प्रकार से अविरत जीव आहारकसप्तक को निर्मूल करता है। यानि कि विरतिपने में से जिस समय आहारकसप्तक की सत्ता वाला जीव अविरतपने को प्राप्त करता है, उस समय से अन्तर्मुहूर्त जाने के बाद आहारकसप्तक की उद्वलना प्रारंभ करता है और उसे पल्योपम के असंख्यातवें भाग में निमूल करता है। क्योंकि आहारकसप्तक की सत्ता अविरत के नहीं होती है, विरत के ही पाई जाती है तथा अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत या सर्व विरत जीव अनन्तानुबंधि, मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय की अन्तर्मुहूर्त काल में पूर्व की तरह उद्वलना करता है तथा मध्यम आठ कषाय, नव नोकषाय, स्त्यानधित्रिक, नामकर्म की तेरह प्रकृति और संज्वलन क्रोध, मान, माया इन छत्तीस प्रकृतियों को अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवी जीव पूर्वोक्त प्रकार से अन्तर्मुहूर्त काल में उद्वलित करता है । तथा
सम्ममीसाई मिच्छो सुरदुगवेउविछक्कमेगिदी। सुहुमतसुच्चमणुदुगं अंतमुहत्तण अणिअट्टी ॥७॥
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