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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५७ अब उतने उतने रस का संक्रम करने वाला कौन होता है ? इसको स्पष्ट करने के लिये स्वामित्वप्ररूपणा करते हैं। उसमें भी पहले उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम के स्वामियों को बतलाते हैं। उत्कृष्ट अनुभागसं कम-स्वामित्व बंधिय उक्कोतरसं आवलियाओ परेण संकामे । जावंतमुहू मिच्छो असुभाणं सव्वपयडीणं ॥५७॥ शब्दार्थ-बंधिय-बांधकर, उक्कोसरसं-उत्कृष्ट रस को, आवलियाओ-आवलिका के, परेण -बाद, संकामे-संक्रमित करते हैं, जावंतमुहू-अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त, मिन्छो-मिथ्यादृष्टि, असुभाणं-अशुभ, सव्वपयडीण-सभी प्रकृतियों का। गाथार्थ-मिथ्यादृष्टि जीव सभी अशुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट रस बांधकर आवलिका के बाद अन्तमुहर्त पर्यन्त उसको संक्रमित करते हैं। विशेषार्थ-गाथा में अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम के स्वामी का निर्देश किया है ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, असातावेदनीय, मोहनीय की अट्ठाईस, नरकद्विक, तिर्यचद्विक, एकेन्द्रियादि जातिचतुष्क, प्रथम के सिवाय शेष पांच संहनन एवं पांच संस्थान, अशुभ वर्णादि नवक, उपघात, अशुभ विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश:कीर्ति, नीचगोत्र और अन्तरायपंचक, कुल मिलाकर अठासी अशुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट रस बांधकर बंधावलिका के बीतने के बाद बांधे हए उस रस को सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त से लेकर सभी चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव अन्तमुहूर्त पर्यन्त संक्रमित करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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