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________________ संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५३ १२७ विशेषार्थ - कर्मप्रकृतियों में सर्वघातित्व, देशघातित्व और अघातित्व ये रस के सम्बन्ध से है । देशघाति रसस्पर्धक के सम्बन्ध से मतिज्ञानावरण आदि पच्चीस प्रकृतियां देशघाति, सर्वघाति रसस्पर्धक के सम्बन्ध से केवलज्ञानावरणादि बीस प्रकृतियां सर्वघाति और अघाति रसस्पर्धक के सम्बन्ध से सातावेदनीय आदि पचहत्तर प्रकृतियां अघाति कहलाती हैं । आत्मा के ज्ञानादि गुणों को सूर्य और मेघ के दृष्टान्त से जो प्रकृतियां सर्वथा घात करती हैं वे सर्वघाति, गुणों के एक देश को देश से घात करती हैं, वे देशघाति और जो प्रकृतियां आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करतीं, परन्तु साता आदि उत्पन्न करती हैं, वे कर्मप्रकृतियां अघाति कहलाती हैं । इसी प्रकार एक स्थानक आदि स्थानसंज्ञा भी रस के सम्बन्ध से ही जानना चाहिये | बंध की अपेक्षा एक सौ बीस प्रकृतियों में से मति श्रुत- अवधि और मनपर्यायज्ञानावरण, चक्षु, अचक्षु अवधिदर्शनावरण, पुरुषवेद, संज्वलनचतुष्क और अन्तरायपंचक ये सत्रह प्रकृतियां एकस्थानक, द्विस्थानक, त्रिस्थानक और चतुःस्थानक रस वाली हैं और शेष एक सौ तीन प्रकृतियां द्वि, त्रि और चतुः स्थानक रस वाली हैं। कर्मप्रकृतियों में एकस्थानक आदि जो स्थानसंज्ञा कही है, वह रस-- अनुभाग रूप कारण की अपेक्षा से है । जैसे कि जिन मतिज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियों में मंद रस होता है, वे एकस्थानक रस वाली कहलाती हैं । इसी प्रकार द्विस्थानक आदि रस वाली भी समझ लेना चाहिये । अध्यवसायानुसार जिन प्रकृतियों में जैसा रस उत्पन्न हुआ हो, उन प्रकृतियों में उसके अनुरूप एकस्थानक आदि संज्ञा समझना चाहिये । - इस प्रकार से बंधापेक्षा प्रकृतियों की घातित्व और स्थानसंज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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