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पंचसंग्रह : ७
ज्ञानादि रूप एक देश को जो दवायें, घात करें, वे देशघाति रसस्पर्धक कहलाते हैं और जो रसस्पर्धक आत्मा के किसी भी गुण को दबाते नहीं, परन्तु जैसे स्वयं चोर न हो लेकिन चोर के संबंध से चोर कहलाता है, उसी प्रकार सर्वघाति रसस्पर्धक के सम्बन्ध से सर्वघाति कहलाते हैं, उन्हें अघाति रसस्पर्धक कहते हैं ।
ये अघातिस्पर्धक स्वयं आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करते, दबाते नहीं, मात्र सर्वघाति स्पर्धकों का जब तक सम्बन्ध है, तब तक उन जैसा काम करते हैं । जैसे निर्बल बलवान के साथ मिले तब वह बलवान जैसा काम करता है, वैसे ही अघातिरस सर्वघातिरस के सम्बन्ध वाला हो वहाँ तक उसी सरीखा कार्य करता है ।
प्रकृतियों में जो सर्वघाति, देशघाति या अघाति पना कहा गया है वह सर्वघाति आदि रसस्पर्धकों के सम्बन्ध से समझना चाहिये । यानि उस उस प्रकार के रस के सम्बन्ध से ही सर्वघाति, देशघाति या अघाति प्रकृतियां कहलाती हैं । इसी बात को गाथा में 'रसकारणओ नेयं घाइत्तविसेसणभिहाणं' पद से स्पष्ट किया कि सर्वघाति आदि रस रूप कारण की अपेक्षा से ही कर्मप्रकृतियां सर्वघातिनी, देशघातिनी या अघातिनी कहलाती हैं ।
अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं
देसग्धाइरसेणं, पगईओ होंति देसघाईओ ।
इयरेणियरा एमेव, ठाणसन्ना वि नेयव्वा ॥ ५३ ॥
शब्दार्थ -- देसग्धाइरसेणं- देशघाति रसस्पर्धक के सम्बन्ध से, पगईओप्रकृतियां, होंति — होती हैं, देसघाईओ - देशघातिनी, इयरेणियरा -- इतर से इतर ( सर्वघाति रसस्पर्धक के सम्बन्ध से सर्वघाति), एमेव — इसी प्रकार ठाणसन्नावि - स्थानसंज्ञा भी, नेयत्वा --- जानना चाहिये ।
गाथार्थ - देशघाति रसस्पर्धक के सम्बन्ध से प्रकृतियां देशघाति और सर्वघाति रसस्पर्धक के सम्बन्ध से प्रकृतियां सर्वघाति हैं । इसी प्रकार स्थानसंज्ञा भी जानना चाहिये ।
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