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पंचसंग्रह : ७
प्रकृतियों का दो प्रकार का है तथा शेष विकल्प भी दो प्रकार के हैं।
विशेषार्थ-जिनकी सत्ता ध्रुव है, वे ध्रुवसत्ताका प्रकृतियां कहलाती हैं और ऐसी प्रकृतियां एक सौ तीस हैं। वे इस प्रकारनरकद्विक, देवद्विक, वैक्रियसप्तक, आहारकसप्तक, मनुष्यद्विक, तीर्थकरनाम, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, उच्चगोत्र और आयुचतुष्क इन अट्ठाईस अध्र वसत्ता वाली प्रकृतियों को कुल एक सौ अट्ठावन प्रकृतियों में से कम करने पर शेष एक सौ तीस उत्तर प्रकृतियां ध्र वसत्ता वाली हैं। उन एक सौ तीस में से भी चारित्रमोहनीय की पच्चीस प्रकृतियों को कम कर दिया जाये, क्योंकि उनके लिये पृथक से आगे कहा जा रहा है। अतएव एक सौ तीस में से चारित्रमोहनीय की पच्चीस प्रकृतियों को कम करने पर शेष एक सौ पांच प्रकृतियों का जघन्य स्थितिसंक्रम अपने-अपने क्षय के अंत में एक समय होने से सादि-अध्र व (सान्त) है। उसके सिवाय शेष समस्त स्थितिसंक्रम अजघन्य है और वह अनादि काल से होता चला आने से अनादि है तथा भव्य-अभव्य की अपेक्षा अनुक्रम से अध्र व और ध्र व है। ___ चारित्रमोहनीय की पच्चीस प्रकृतियों का अजवन्य स्थितिसंक्रम सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार का है। वह इस प्रकार--उपशमश्रेणि में इन पच्चीस प्रकृतियों का सर्वथा उपशम होने के बाद संक्रम नहीं होता है। वहाँ से पतन होने पर अजघन्य संक्रम होता है, इसलिये सादि है, उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनकी अपेक्षा अनादि, अभव्य के ध्रुव (अनन्त) और भव्य के अध्रुव (सांत) अजघन्य संक्रम है।
शेष अट्ठाईस अध्र वसत्ता वाली प्रकृतियों के जघन्य, अजघन्य उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये चारों विकल्प उनकी सत्ता ही अध्र व होने से सादि-सान्त (अध्र व) हैं।
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