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पंचसंग्रह : ७
गाथार्थ-जो-जो जीव जिन प्रकृतियों का क्षपक है, वह उनकी जधन्य स्थिति के संक्रम का स्वामी है । शेष प्रकृतियों का तो सयोगिकेवली स्वामी है। क्योंकि उसे अन्तर्मुहुर्त प्रमाण जघन्य स्थिति होती है।
विशेषार्थ--जो जीव जिन कर्मप्रकृतियों का क्षपक है, वह जीव उन-उन प्रकृतियों की जघन्य स्थिति को संक्रमित करता है। क्योंकि उन-उन प्रकृतियों का क्षय करते-करते अंत में अल्प स्थितिसत्ता में शेष रहती है और उसे संक्रमित करता है। जैसे कि चारित्रमोहनीय की संज्वलन लोभ के सिवाय शेष बीस प्रकृतियों का अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव और संज्वलन लोभ का सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवी जीव स्वामी है। दर्शनसप्तक के चौथे से सातवें गुणस्थान तक के जीव स्वामी हैं । ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणषट्क, अन्तरायपंचक इन सोलह प्रकृतियों का क्षीणमोहगुणस्थानवी जीव स्वामी है तथा शेष अघाति कर्मप्रकृतियों के जघन्य स्थितिसंक्रम के स्वामी सयोगिकेवली हैं। क्योंकि उन्हीं के चरम समय में उन प्रकृतियों की संक्रमयोग्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य स्थिति सत्ता में होती है, अन्य को नहीं होती है।
इस प्रकार से समस्त प्रकृतियों के जघन्य स्थितिसंक्रम के स्वामी जानना चाहिये । अब जघन्य स्थितिसंक्रम का लक्षण बतलाते हैं। जघन्य स्थितिसंक्रम का लक्षण
उदयावलिए छोभो अण्णप्पगईए जो य अंतिमओ।
सो संकमो जहण्णो तस्स पमाणं इमं होई ॥४५॥ शब्दार्थ-उदयावलिए-उदयावलिका में, छोभो—प्रक्षेप, अण्णप्पगईए-अन्य प्रकृति का, जो-जो, य--वह, अंतिमओ---अंतिम, सो-वह, संकमो-संक्रम, जहण्णो-जघन्य, तस्स-उसका, पमाणं-प्रमाण, इमयह, होइ है।
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