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________________ संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४४ १०५ दयवती प्रकृतियों की क्षय होते-होते जो स्थिति शेष रहे, उसका जो अंतिम संक्रम वह जघन्य स्थितिसंक्रम कहलाता है । यहाँ उदयवती प्रकृतियों की अपने-अपने क्षय के समय समयाधिक आवलिका सत्ता में शेष रहे तब ऊपर की समयप्रमाण स्थिति को जघन्य स्थितिसंक्रम कहा है । परन्तु उदयवती समस्त प्रकृतियों में अपने-अपने क्षय के समय समयप्रमाण स्थिति का संक्रम घटित नहीं होता है । क्योंकि चरमोदय वाली नामकर्म की नौ, उच्चगोत्र एवं वेदनीयद्विक इन बारह प्रकृतियों का अयोगिकेवली गुणस्थान में उदय होता है, किन्तु वहाँ संक्रम नहीं होता है । इसी प्रकार नपुंसकवेद और स्त्रीवेद का जघन्य स्थितिसंक्रम समय प्रमाण आता नहीं है । परन्तु ऊपर कही गई उक्त चौदह प्रकृतियों के सिवाय शेष बीस उदयवती प्रकृतियों का और तदुपरान्त निद्रा एवं प्रचला इन बाईस प्रकृतियों का जघन्य स्थितिसंक्रम अपवर्तना की अपेक्षा एक समय प्रमाण घटित होता है । कर्मप्रकृति संक्रमकरण इसी ग्रंथ में भी आगे इसी प्रकार बताया गया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ सभी उदयवती प्रकृतियों का सामान्य से निर्देश किया गया है। यदि अन्य कोई कारण हो तो वह बहुश्रुतगम्य है, जिसका विद्वज्जन स्पष्टीकरण करने की कृपा करें । इस प्रकार से जघन्य स्थितिसंक्रम का प्रमाण जानना चाहिये । अब जघन्य स्थितिसंक्रम के स्वामियों का निर्देश करते हैं । जघन्य स्थितिसंक्रम- स्वामी जो जो जाणं खवगो जहण्णठितिसंकमस्स सो सामी । सेसाणं तु सजोगी अंतमुहत्तं जओ तस्स ॥४४॥ शब्दार्थ –– जो-जो — जो-जो, जाणं - जिनका खवगो - क्षपक, जहण्णठितिसंक मस्स – जघन्य स्थितिसंक्रम का, सो वह, सामी स्वामी, सेसाणंशेष का, तु तो, सजोगी — सयोगिकेवली, अंतमुहुत्तं - अन्तर्मुहूर्त, जओक्योंकि, तस्स -- उसकी । Jain Education International 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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