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________________ संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४०, ४१ होता है, लेकिन ऐसा भ्रम न हो जाये, इसलिये बंधोत्कृष्टा में गणना की है । क्योंकि चारों आयु में परस्पर संक्रम या किसी अन्य प्रकृति के दलिक का संक्रम होता ही नहीं है और बंधोत्कृष्टा और संक्रमोत्कृष्टा के अतिरिक्त अन्य कोई तीसरा भेद है नहीं कि जिसमें उसको गर्भित किया जा सके, इसलिये या तो दोनों में ही नहीं गिनना चाहिये या फिर बंधोत्कृष्टा में ग्रहण करना चाहिये । यहाँ जो बंधोत्कृष्टा में गिना है, वह युक्तियुक्त ही है । ६७ इस प्रकार जिन कर्मप्रकृतियों का पतद्ग्रह प्रकृतियों का बंध होने पर संक्रम होता है, उनकी स्थिति के संक्रम का प्रमाण बताया । अब जिन प्रकृतियों का पतद्ग्रहप्रकृति के बंध के अभाव में भी संक्रम होता है, उनकी स्थिति के संक्रम का प्रमाण बतलाते हैं गंतु सम्मो मिच्छंतस्सुक्कोसं ठिइं च काऊणं । मिच्छ्यिराणक्कोसं करेति ठितिसंक्रमं सम्मो ॥४०॥ अंतोमुहुत्तहोणं आवलियदुहीण तेसु सट्ठाणे । उवको संकमपह उक्कोसगबंधगणासु ॥ ४१ ॥ शब्दार्थ - गंतु – जाकर, सम्मो— सम्यग्दृष्टि, मिच्छंतस्सुक्कोसं मिथ्यात्व की उत्कृष्ट, ठिइं— स्थिति, च- - और, काऊणं - करके, बांधकर, मिच्छियराणुक्को - मिथ्यात्व से इतरों में उत्कृष्ट, करेति - करता है, ठितिसंकम - स्थितिसंक्रम, सम्मो— सम्यग्दृष्टि | अतो मुहुत्त होणं - अन्तर्मुहूर्त न्यून, आवलियदुहीण - आवलिकाद्विक हीन, तेसु— उनमें सट्ठाणे - स्वस्थान में, उक्कोस संकमपडू -उत्कृष्ट संक्रम का स्वामी, उक्कोसगबंधगण्णासु - अन्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट बंधक । गाथार्थ – कोई ( क्षायोपशमिक) सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्व में जाकर मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति को बांधकर सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में जाये, वहाँ वह सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व से इतरों (सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय) में मिथ्यात्वमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति संक्रमित करता है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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