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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३१ ७७ उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर उन्हीं अविरत आदि तीन गुणस्थानवी जीवों के तीर्थंकरनाम की बंधावलिका बीतने के पूर्व एक सौ दो प्रकृतियां उन्हीं उनतीस प्रकृतियों में संक्रमित होती हैं । अथवा पूर्व में कही गई द्वीन्द्रियादियोग्य उद्योत रहित उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर एक सौ दो प्रकृतियों की सत्ता वाले एकेन्द्रियादि जीव उनतीस प्रकृतियों में एक सौ दो प्रकृतियां संक्रमित करते हैं । तीर्थंकरनाम सहित देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर छियानवै प्रकृतियों के सत्ता वाले अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तसंयत जीव उनतीस के पतद्ग्रहस्थान में छियानवै प्रकृतियां संक्रमित करते हैं। ___ अपर्याप्तावस्था में वर्तमान तीर्थंकरनाम की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि नारक मनुष्यद्विक, पंचेन्द्रियजाति, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर-अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, सुभग-दुर्भग में से एक, आदेय-अनादेय में से एक, यशःकीर्ति-अयश:कीति में से एक, छह संहननों में से एक, छह संस्थानों में से एक, वर्णादिचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, तैजस, कार्मण, निर्माण, औदारिकद्विक, सुस्वर-दुःस्वर में से एक, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त-अप्रशस्तविहायोगति में से एक, इस तरह मनुष्यगतिप्रायोग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर उनतीस में छियानवै प्रकृतियां संक्रमित करते हैं। तीर्थंकरनामसहित देवगतिप्रायोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करने पर छियानवै प्रकृतियों के सत्ता वाले अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तविरत जीव तीर्थंकरनाम की बंधावलिका बीतने के पहले उनतीस प्रकृतियों में छियानवै प्रकृतियां संक्रमित करते हैं तथा तिर्यचगतिप्रायोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करने पर पंचानवै प्रकृतियों की सत्ता वाले एकेन्द्रियादि जीवों के बंधती हुई उनतीस प्रकृतियों में पंचानवै प्रकृतियां संक्रमित होती हैं। तेरानवे, चौरासी और वयासी प्रकृतिक इन तीन संक्रमस्थानों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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