________________
७६
पंचसंग्रह : ७
जीव बंधने वाली उनतीस प्रकृतियों में एक सौ दो प्रकृतियां संक्रमित करते हैं।
पूर्व में कही तीर्थकरनाम सहित मनुष्यगतिप्रायोग्य तीस कर्मप्रकृतियों का बंध करते हुए छियानवै की सत्ता वाले सम्यग्दृष्टि देवनारकों के बंधने वाली उनतीस प्रकृतियों में छियानवै प्रकृतियां संक्रमित होती हैं। ___आहारकद्विक सहित देवगतियोग्य तीस प्रकृतियों को बांधने पर एक सौ दो की सत्ता वाले आहारकसप्तक की बंधावलिका जिनकी बीती नहीं है, ऐसे अप्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव बंधने वाली उनतीस प्रकृतियों में पंचानवै प्रकृतियां संक्रमित करते हैं। अथवा पंचानवै की सत्ता वाले उद्योतनाम के साथ तिर्यंचगतियोग्य तीस प्रकृतियों को बांधते हुए एकेन्द्रियादि जीव बंधने वाली उनतीस प्रकृतियों में पंचानवै प्रकृतियों को संक्रमित करते हैं।
तेरानवै, चौरासी अथवा वयासी प्रकृतियों की सत्ता वाले एकेन्द्रिय आदि जीवों के पूर्व में कही गई तिर्यंचगतियोग्य उद्योतनाम सहित तीस प्रकृतियों को बांधने पर बंधती हुई तीस प्रकृतियों में अनुक्रम से तेरानवै, चौरासी और वयासी कर्मप्रकृतियां संक्रमित होती हैं।
तीर्थंकरनाम के साथ देवद्विक, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियद्विक, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर-अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति-अयश:कीति में से एक, समचतुरस्रसंस्थान, तैजस, कार्मण, वर्णादिचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण रूप उनतीस (२६) कर्मप्रकृतियों को बांधने पर एक सौ तीन की सत्ता वाले अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तसंयत जीवों के उनतीस प्रकृतिक पतनग्रहस्थान में एक सौ तीन प्रकृतियां संक्रमित होती हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org