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पंचसंग्रह : ७
विशेषार्थ-क्षपकश्रेणि में वर्तमान अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवी जीव के दस, ग्यारह, बारह और तेरह तथा इक्कीस यह पांच संक्रमस्थान पांच प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होते हैं। उसमें आठ कषाय का क्षय होने के पहले इक्कीस प्रकृतियां पुरुषवेद और संज्वलनचतुष्क इन बंधने वाली पांच प्रकृतियों में संक्रमित होती हैं । आठ कषायों का क्षय होने के बाद तेरह प्रकृतियां पांच में संक्रांत होती हैं। अन्तरकरण करने के बाद लोभ का संक्रम नहीं होता है, अतः बारह प्रकृतियां पांच में संक्रमित होती हैं। नपुसकवेद का क्षय होने के बाद ग्यारह और स्त्रीवेद का क्षय होने के बाद दस प्रकृतियां पूर्वोक्त पांच प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में संक्रान्त होती हैं।
दस और चार प्रकृतियां चार प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं। उनमें पुरुषवेद की प्रथमस्थिति समयन्यून दो आवलिका शेष रहे तब वह पतद्ग्रह नहीं रहता है, जिससे पूर्वोक्त दस प्रकृतियां संज्वलन वतुष्क में संक्रमित होती हैं और हास्यषट्क का क्षय होने के बाद चार प्रकृतियां पूर्वोक्त चार में संक्रमित होती हैं।
- पतद्ग्रह में से क्रोध कम होने के बाद शेष तीन प्रकृतिक पतद्ग्रह में तीन प्रकृतियां संक्रमित होती हैं। इसी प्रकार पतद्ग्रह में से मान के जाने के बाद माया और लोभ ये दो प्रकृतियां माया और लोभ इन दो के पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं और माया के भी पतद्ग्रह में से कम होने के बाद एक लोभ में माया का संक्रम होता है।
अब क्षायिक सम्यग्दृष्टि के उपशमश्रेणि में पतद्ग्रहस्थानों में संक्रमस्थानों का प्रतिपादन करते हैं---
अट्ठाराइचउक्कं पंचे अट्ठार बार एक्कारा । चउसु इगारसनवअड तिगे दुगे अट्ठछप्पंच ॥२६॥
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