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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २५ किया ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टि के अठारह में, देशविरत के चौदह में और सर्वविरत के दस में बाईस प्रकृतियां संक्रान्त होती हैं तथा गाथा में गृहीत बहुवचन इष्ट अर्थ की व्याप्ति के लिये होने से औपशमिक सम्यग्दृष्टि के उपशमश्रेणि में अन्तरकरण करने के बाद सात प्रकृति रूप पतद्ग्रह में बाईस प्रकृतियां संक्रांत होती हैं । उन्हीं क्षायिक सम्यग्दृष्टि अविरत आदि के सत्रह, तेरह और नौ के पतद्ग्रह में इक्कीस प्रकृतियां संक्रमित होती है। उनमें से चौथे गुणस्थान में सत्रह के, पांचवें में तेरह के और छठे-सातवें में नौ के पतद्ग्रहस्थानों इक्कीस प्रकृतियां संक्रमित होती हैं और औपशमिक सम्यग्दृष्टि के उपशमश्रेणि में नपुसकवेद का उपशम होने के बाद इक्कीस प्रकृतियां सात प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रान्त होती हैं । __ पूर्व में क्षपकश्रेणि और उपशमश्रेणि के पतद्ग्रहस्थानों में संक्रमस्थानों का निर्देश किया। अब केवल क्षपकश्रेणि के पतद्ग्रहस्थानों में संक्रमस्थानों का प्रतिपादन करते हैं - दसगाइचउक्कं एक्कवीस खवगस्स संकहि पंचे। दस चत्तारि चउक्के तिसु तिन्नि दु दोसु एक्केक्कं ॥२५॥ शब्दार्थ-दसगाइचउक्कं-दस आदि चार, एक्कवीस-इक्कीस, खवगस्स-क्षपक के, संकमहि-संक्रमित होती हैं, पंचे-पांच में, दस चत्तारिदस और चार, चउक्के-चार में, तिसु-तीन में, तिनि-तीन, दु-दो, दोसु-दो में, एक्कक्कं--एक में एक ।। गाथार्थ--क्षपक के दस आदि चार और इक्कीस प्रकृतियां पांच में, दस और चार चार में, तीन तीन में, दो दो में और एक एक में संक्रमित होती हैं। १. इसी प्रकार मिश्रमोहनीय का क्षय होने के बाद बाईस की सत्ता वाले अविरत आदि क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी के भी इन्हीं तीन पतद्ग्रहस्थानों में इक्कीस प्रकृतियों का संक्रम होता है। परन्तु वह क्षायिकसम्यक्त्व प्राप्त करते हुए ही होता है, इसलिये उसकी संभवतः विवक्षा न की हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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