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________________ बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५ १३ इन अविभाग आदि दस प्ररूपणाओं का अनुक्रम से विचार करने का दूसरा कारण यह है कि किसी भी एक आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में विवक्षित समय में वीर्यलब्धि समान होने पर भी योग संज्ञा वाला वीर्य (करण वीर्य) समान नहीं होता है । क्योंकि जहाँ वीर्य की निकटता होती है वहाँ उन आत्मप्रदेशों में चेष्टा अधिक होने से वीर्य अधिक होता है और उन आत्मप्रदेशों से जो-जो आत्मप्रदेश जितने - जितने अंश में दूर होते हैं वहाँ उन में उतने उतने अंशों में अल्प- अल्प चेष्टा (परिस्पन्दन) होने से उन-उन आत्मप्रदेशों में करण वीर्य क्रमशः हीन-हीन होता जाता है । इस तरह यह करण वीर्य प्रत्येक जीव के सर्व प्रदेशों में तरतम भाव से होने के कारण उसकी अविभाग, वर्गणा आदि उक्त दस प्ररूपणायें क्रमश: की जाती हैं । प्ररूपणा का अर्थ है अपने-अपने अधिकृत विषयों का संगोपांग विचार करना | अविभाग प्ररूपणा आदि दस अधिकारों का क्रम से विचार करने का संकेत ऊपर किया है और उस क्रम में अविभाग प्ररूपणा प्रथम है । अतएव सर्वप्रथम अविभाग प्ररूपणा की व्याख्या प्रारम्भ करते हैं । अविभाग प्ररूपणा पन्ना अविभागं जहन्नविरियस्स वीरियं छिन्नं । एवकेक्स्स पएसस्स असंख लोगप्पएससमं ||५|| शब्दार्थ – पन्नाए - - प्रज्ञा - केवलज्ञान रूप बुद्धि, अविभागं — अविभाज्यजिसका दूसरा विभाग न हो सके, जहन्नविरियस्स — जघन्य वीर्य वाले जीव के, वोरियं वीर्य, छिन्नं छिन्न खण्डित किया गया, एक्केक्कस्स — एकएक ( प्रत्येक ), असंख लोगप्पएससमं - असंख्यात लोकाकाश प्रदेश के बराबर । गाथार्थ - केवलज्ञान रूप प्रज्ञा-बुद्धि द्वारा जघन्य वीर्य वाले जीव के वीर्य का जिसका दूसरा विभाग न हो सके, उस रीति से खण्डित किया गया जो वीर्य खण्ड उसे अविभाग कहते हैं ।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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