________________
१२
पंचसंग्रह : ६
शब्दार्थ-जोगो-योग, विरियं–वीर्य, थामो-स्थाम, उच्छाहउत्साह, परक्कमो-पराक्रम, तहा–तथा, चेट्ठा-चेष्टा, सत्ति-शक्ति, सामत्थं सामर्थ्य, चिय-भी, जोगस्स-योग के, हवंति हैं, पज्जाया–पर्याय । ___ गाथार्थ-योग, वीर्य, स्थाम, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति
और सामर्थ्य ये सब योग के पर्यायवाची नाम हैं। विशेषार्थ-वीर्य अथवा योग शब्द से जो आशय ग्रहण किया जाता है, वही अर्थ स्थाम, उत्साह आदि सामर्थ्य पर्यन्त के शब्दों का भी है । अर्थात् जैसे योग शब्द सलेश्य जीव के वीर्य का बोधक है, उसी प्रकार स्थाम, उत्साह आदि शब्द भी उसी वीर्य के अर्थ के ज्ञापक हैं। इसीलिए इनको योग के ही समानार्थक, पर्यायवाची नाम जानना चाहिये।
इस प्रकार सामान्य से योग संज्ञक वीर्य का विचार करने के पश्चात् अब उसके उत्कृष्टत्व, अनुत्कृष्टत्व जघन्यत्व और अजघन्यत्व का बोध कराने के लिये विस्तार से विवेचन करते हैं। योग विचारणा के अधिकार
विस्तार से योग संज्ञक वीर्य शक्ति की विचारणा के अधिकारों के नाम इस प्रकार हैं
१. अविभाग प्ररूपणा, २. वर्गणा प्ररूपणा, ३. स्पर्धक प्ररूपणा, ४. अन्तर प्ररूपणा, ५. स्थान प्ररूपणा, ६. अनन्तरोपनिधा प्ररूपणा, ७. परंपरोपनिधा प्ररूपणा, ८. वृद्धि (हानि) प्ररूपणा, ६. काल प्ररूपणा और १०. जीवाल्पबहुत्व प्ररूपणा। इनमें पहली प्ररूपणा का नाम अविभाग प्ररूपणा है और अन्तिम का नाम है जीवाल्पबहुत्व अर्थात् जीवों के योग के अल्प-बहुत्व का विचार करना। इन अधिकारों का अनुक्रम से एक के बाद दूसरे, दूसरे के बाद तीसरे, इस रूप से विचार करना चाहिये। क्योंकि व्युत्क्रम से विचार करने पर इनकी क्रम बद्धता ज्ञात नहीं हो सकती है।