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और अबाधा कंडक प्ररूपणा का विस्तार से बंधविधि अधिकार में वर्णन हो जाने से पुनरावृत्ति न करके यहां जीवापेक्षा स्थितिबंध के अल्पबहुत्व का निर्देश किया है कि किस जीव को किससे अल्पाधिक स्थितिबंध होता है । तदनन्तर अल्प बहुत्व प्ररूपणा के प्रसंग में आठों कर्म प्रकृतियों की बंधक जीवों की अपेक्षा जघन्य अबाधा से लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक के अल्प- बहुत्व का निरूपण किया है ।
तत्पश्चात् स्थितिबंध के हेतुभूत अध्यवसायस्थानों का स्थिति समुदाहार, प्रकृति समुदाहार और जीव समुदाहार इन तीन द्वारों के माध्यम से निरूपण किया है। स्थिति समुदाहार की प्ररूपणा प्रगणना, अनुकृष्टि और तीव्र - मंदता द्वारा प्रकृति समुदाहार की प्ररूपणा प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व इन दो अधिकारों द्वारा की है । जीव समुदाहार के वर्णन के प्रसंग में किन प्रकृतियों का कितने स्थानक रस बंध होने का कारण सहित स्पष्टीकरण किया है एवं अल्प- बहुत्व बतलाया है ।
यह बंधनकरण सम्बन्धी समस्त वर्णन की परिचयात्मक रूपरेखा है, जो कुल एक सौ बारह गाथाओं में पूर्ण हुई है । इस वर्णन सम्बन्धी विशेष स्पष्टीकरण एवं आवश्यक प्रारूप परिशिष्ट में दिये हैं । जिससे पाठकों को अधिकार का सुगमता से बोध हो सके ।
विषय परिचय के रूप में पूर्वोक्त उल्लेख पर्याप्त है । अतः विस्तार से विवेचन करने का दायित्व सुधी पाठकों को देकर विराम लेता हूँ ।
खजांची मोहल्ला
बीकानेर (राज.) ३३४००१
देवकुमार जैन संपादक