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________________ ( २२ ) अन्तरित हैं। इनके अतिरिक्त शेष वर्गणायें न तो संसारी जीव द्वारा ग्राह्य हैं और न कभी ग्रहणयोग्य बनती हैं। ___ गाथा सत्रह में वर्गणागत परमाणुओं का संख्या प्रमाण बतलाकर अठारहवीं गाथा में वर्गणाओं के वर्णादि का निरूपण किया है। यह सब वर्णन करने के बाद पुद्गलों के परस्पर बंध के कारणरूप स्नेह गुण का विवेचन स्नेहप्रत्ययस्पर्धक, नामप्रत्ययस्पर्धक और प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक इन तीन प्रकार की प्ररूपणाओं द्वारा किया है। नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा अविभाग, वर्गणा, स्पर्धक, अन्तर, वर्गणागत पुद्गलों के स्नेहाविभाग के समस्त समुदाय, स्थान, कंडक और षट्स्थान इन आठ अनुयोगद्वारों द्वारा की है एवं प्रयोगप्रत्यय स्पर्धक प्ररूपणा के भी आठ अनुयोग द्वार इस प्रकार हैं-अविभाग, वर्गणा, स्पर्धक, अन्तर, स्थान, कंडक, षट्स्थान और वर्गणागत स्नेहाविभाग सकल समुदाय प्ररूपणा । इन दोनों प्ररूपणाओं का वर्णन गाथा २५ से प्रारम्भ करके गाथा ३७ तक पूर्ण हुआ है। अन्त में तीनों स्पर्धक प्ररूपणाओं के वर्गणागत स्नेहाविभाग का गाथा ३८ में अल्पबहुत्व बतलाया है। तदनन्तर बंधनकरण की सामर्थ्य से बंधने वाली मूल और उत्तर प्रकृतियों के विभाग होने के कारण को स्पष्ट करने के बाद प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चार प्रकार के बंधों के लक्षण बतलाये प्रदेशबंध का वर्णन करते हुए सर्वप्रथम प्रकृतियों में दलिक विभाग विधि का निरूपण किया है एवं उत्कृष्ट और जघन्य पद में प्रदेशों का अल्प-बहुत्व बतलाया है तथा प्रदेशबंधविषयक शेष वर्णन बंधविधि नामक पांचवें अधिकार में किये जाने से यहाँ पुनरावृत्ति न करने का संकेत किया है। अनन्तर अनुभागबंध का विस्तार से वर्णन करने के लिये निम्नलिखित पन्द्रह अधिकारों का नामोल्लेख किया है अध्यवसाय, अविभाग, वर्गणा, स्पर्धक, अन्तर, स्थान, कंडक, षट्स्थान, अधस्तनस्थान, वृद्धि, समय, यवमध्य, ओजोयुग्म, पर्यावसन
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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